रविवार, जनवरी 31, 2010

रत्नाकर की कलम से

पलकों में क़ैद कर लो
यह अश्क ढल न जाएँ
तेरी आह का जला हूँ
मेरे ज़ख्म भर न जाएँ

तू एक वफ़ा की मूरत
मेरा बेवफा का चेहरा
मेरे हाल पे यूं आंसू
यह फर्क भर न जाएँ

खाली अगर उठे तो
दुआ का गुमान होगा
हाथों से अपने कह दे
पत्थर न भूल जाएँ

अब पोंछ भी लो आंसू
और फेर लो निगाहें
तेरी दीद से है डर
हम फिर संभल न जाएँ।

शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

सहूलियत का दर्द

दोस्तों, शायद सुनने में अजीब लगे, लेकिन सहूलियत के दर्द से परेशान हो रहा हूँ। देखिये ना, आज कोई भी पुराना गाना सुनना हो तो बस नेट पर जाइये, गाना तुरंत हाज़िर है, जब इस सुविधा का पता चला तो मैं काफी रोमांचित हुआ था, लेकिन एकाध दिन बाद ही इस सहूलियत से मन भर गया। क्योंकि इसमें खोज का रोमांच और मेहनत की सफलता का आनंद नहीं था। पुराने गाने सुनने का हमेशा से ही शौक़ीन रहा हूँ। उस समय मेरे भोपाल शहर में तीन या चार दुकाने ही थीं जहाँ पुराना क्लासिक संग्रह मिल सके। तब कितना संघर्ष करते थे एक-एक गाना तलाशने के लिए, न्यू मार्केट में जीटीबी काम्प्लेक्स की सरगम हो या मधु ब्रदर्स, घंटों तक वहाँ खड़े रहकर एक एक एलपी तलाशते थे, गाने की फिल्म का एलपी नहीं मिलता तो पता लगते थे की म्यूजिक किसका है, गाया किसने है या लिखा किसने है यह तक की किस निर्माता की फिल्म थी। गोया की गायक, निर्माता, संगीतकार गीतकार के किसी एल्बम में ही गाना मिल जाए, इसके लिए हर कोशिश करते थे। इन्ही के सामने की भदभदा रोड पर थी ज्योति नाम की दूकान, विलक्षण संग्रह था वहाँ, वहाँ एक बुजुर्ग थे, उन्हें ज़ुबानी याद था की कौन सा गाना किस एल्बम में मिल सकता है। पुराने शहर में कृष्ण रेडियो थी, वहाँ भी बेहतरीन संग्रह था। एक और दूकान नहीं भूल सकता जिसका नाम रिदम हाउस था, उसका भी संग्रह बहुत अच्छा था। कुल मिला कर यह दुकानें हमारे आकर्षण का प्रमुख केंद्र थीं, केसात रेकॉर्ड करने देने के बाद धडकते दिल से उसके मिलने का इंतज़ार करते थे, फिर उससे भी ज्यादा धड़कते दिल से यह सोचते हुए उसे सुनते थे की कोई गाना जगह की कमी के चलते कट न गया हो। केस्ट के ऊपर एक एक गाना लिखते थे। तब एक एक गाना मिलने की जितनी खुशी होती थी, आज वोह नेट पर सारे गाने मिल जाने के बाद भी नहीं होती है।
आज सरगम पर डिशटीवी का काम होता है, मधु ब्रदर्स का व्यवसाय बदल गया है, रिदम हाउस, ज्योति और कृष्णा बंद हो चुकी हैं, जब भी उनके पास से गुजरता हूँ, वोही रोमांच महसूस होता है, जो नेट से नहीं होता।

तेरी तलाश में

बेहद अफ़सोस होता है जब-जब यह अहसास सालता है कि मेरी एक पुरानी कॉपी गुम हो गयी है। उसमें बहुत कुछ लिखा था मैंने, लेकिन वोह सब दूसरों का था जो इतना अच्छा लगा कि उसे नोट कर याद कर लिया। ऐसे ही लोगों में थे श्री अस्थाना, जिनकी एक कविता दीपावली की रात किसी अखबार में पढ़ी तो उसे फिर कभी भी दिमाग से उतार नहीं सका, कविता कुछ यूं थी
झुको, नीचे झुको , ज़मीन तक झुको
और उसके पाँव छू लो, वोह मां है,

बहुत संभव है, ऐसा करने में तुम्हारे पैंट की क्रीज़ ख़राब हो जाए
किन्तु तुम्हारे पैंट की क्रीज़ का, उसके चेहरे की झुर्रियों
और बिवाई फटे पैरों से गहरा नाता है

इसलिए बंधू , झुको, नीचे झुको , ज़मीन तक झुको
और उसके पाँव छू लो, वोह मां है
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पूरा नाम तक याद नहीं है श्री अस्थाना का, लेकिन ग़ज़ब की कविता थी यह, उनकी 'वोह कहानी तो सुनी होगी वैशाली' शीर्षक वाली कविता भी ग़ज़ब की थी। किसी का अस्थाना साहेब से परिचय हो तो उन तक मेरा अभिवादन ज़रूर पेश करने की कृपा करें.
अब ज़रा अस्थाना जी की दूसरी कविता भी सुन लीजिये

तुमने वोह कहानी तो सुनी होगी वैशाली कि

राजा से सज़ा पाया आदमी, रात भर डूबा रहा था, ठन्डे खून जमा देने वाले पानी में

सुबह होने पर उसे बताया गया कि, तुम हमारे समय की सबसे भयानक ठंडक से इसलिए बच गए कि

महल के दिए का ताप तुम तक पहुंचता रहा,

यूं तो राजा की क्रूरता को रेखांकित करती है यह कहानी,

लेकिन यह भी सच है कि दीपक के सहारे आदमी लड़ सकता है

बड़ी से बड़ी लड़ाई

तुम दीप बन कर जलो वैशाली

मैं रात भर खड़ा रहूँगा,

ठन्डे खून जमा देने वाले पानी में.

शनिवार, जनवरी 23, 2010

कल रात एक फिल्म देखी नाम था कथा, देख कर एक बात लगी कि कैसे कोई भूल सकता है साईं परांजपे के बारे में। ग़ज़ब बोल्डनेस का परिचय थी उनकी वोह फिल्म जिसने सदियों के मिथक को तोड़ने और झुठलाने की हिम्मत की थी, वोह मिथक जो बचपन से हमारे दिमाग में बैठा दिया जाता है कि कछुआ और खरगोश की दौड़ हुई थी और उसमें कछुआ जीत गया, सुस्त होने के बावजूद कि खरगोश बीच दौड़ में सो गया था। साईं परांजपे ने तोडा यह भ्रम, नासुरिद्दीन शाह को कछुआ और फारूक शैख़ को खरगोश बना के कि भले ही बेवकूफ और सुस्त नसीर यानी कछुआ जीत गया हो, लेकिन उसके हाथ लगे तो मुरझाये हुए फूल ही, आज की तारिख में जो अपने आप का बोल्ड होने का दावा करती हैं उनका सम्मान के साथ जानना चाहता हूँ कि बहुत साधारण तरीके से इतना बोल्ड बात बताने कि हिम्मत कहाँ चली गयी? क्या जरूरी है कि सेक्स दिखाया जाये या गाली गलोच से भरी बात वाली फिल्म बना दी जाए या किसी कि धार्मिक आस्था को चोट पहुंचाई जाए, वोह भी खुद के बोल्ड या प्रोग्रेससिवे कहलाने के नाम पर? सी परांजपे आप जहां भी हें इस कृत्रिम बोल्डनेस के नाम पर एक बार फिर आपकी जरूरत है.

मंगलवार, जनवरी 19, 2010

समय वाले लोग

पता नहीं लोगों को क्या हो गया है? यह भी कह सकते हैं की यह उन्हें काफी पहले से हो चुका है। क्या कभी देखा है आपने कि किस तरह किसी इमारत की लिफ्ट का इंतज़ार कर रहा व्यक्ति रह-रह कर उसके बटन दबाता रहता है, वोह भी इतनी बार और इतने दबाव के साथ की मानो ऐसा करने से लिफ्ट आ जाएगी। ऐसे ही जबरदस्त जल्दी में वोह दिखते हैं जब किसी सड़क पर यातायात की लाइट लाल हो, उस वक़्त नियमों को धता बता कर गौरवान्वित चेहरे के साथ वे लाल लाइट के बावजूद यूँ गुज़रते हैं मानो उन्होंने वक़्त पर विजय पा ली हो। किस कदर फिल्म शुरू होने में जरा ज्यादा समय लगाने पर वे दीवानावार सीटी बजा कर हंगामा करने लगते हैं। गोया, उनका एक-एक पल कितना कीमती है! और वे उसे किसी भी सूरत में जाया होने देने का अपराध करना नहीं करना चाहते हैं। उनका समय इतना कीमती है कि शमशान में किसी अंतिम संस्कार के वक़्त भी साथ वाले से दुनियावी बातें कर लेते हैं और मोबाइल पर भी बतियाते रहते हैं। समय कम है सो बेचारे शोकसभा या किसी संगीत सभा के समय भी मोबाइल का कानफोडू रिन्गेर ऑफ नहीं कर पाते हैं। है ना इन्हें समय की सच्ची क़द्र?
अब जरा इन्हीं चेहरों को देखिये सड़क पर लगे किसी मजमे में, जहां वे पूरे इत्मीनान के साथ तमाशा देखते नज़र आएँगे, एक बार मैंने देखा था की किस तरह भोपाल के हमेशा भागते दौड़ते चेतक पुल पर अचानक काफी देर तक के लिए जाम लग गया था। पुल से दिखते एक मकान की छत पर एक युवक किसी युवती की पिटाई कर रहा था। लोग काफी देर तक यह सब देखते रहे, अपने वाहन और कदम रोक कर। कई ऐसे परिवार देखे हैं जो फिल्म देखने गए और शो होउसेफुल होने पर अगले शो तक वहां ही जमे रहे की फिल्म तो आज देखनी ही है, वे बड़े गर्व के साथ इसका किस्सा भी सुनाते हैं। वे कामकाज छोड़ कर कई घंटे तक इस बात पर बहस कर सकते हैं कि इंडियन टीम का क्या हाल है, दुनिया भूल कर इसकी चिंता कर सकते हैं कि राखी का स्वयंवर किस के साथ होगा। ऐसे हर मौके पर समय बेचारा एक कोने में नज़र आता है, शायद वहाँ जिसे हाशिया कहते हैं। पता नहीं समय इस सब पर क्या सोचता होगा। कम से कम मैं तो यह सब देख कर बस मुस्कुरा देता हूँ।

रविवार, जनवरी 10, 2010

क्यों नहीं हो रही राठौड़ की गिरफ्तारी?

नई दिल्ली। रुचिका गिरहोत्रा केस में छह महीने की सज़ा पा चुके हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौड़ को अब तक गिरफ्तार नहीं किया गया हैं। यहां गौर करने वाली बात यह है कि अदालत ने उसकी अग्रिम जमानत याचिका को भी खारिज कर दिया है। ऐसे में देश के आम आदमी के मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि राठौड़ अब तक सीखचों के पीछे क्यों नहीं है। सवाल है कि क्या हरियाणा पुलिस के पूर्व आका को गिरफ्तार करना पंचकूला पुलिस के बूते से बाहर की बात है?
गौरतलब है कि राठौड़ को गिरफ्तार करने में हो रही देरी को लेकर कोर्ट ने हरियाणा पुलिस की खिंचाई की है। पंचकूला के एसपी मनीष चौधरी ने शनिवार को एक बयान में कहा कि हमारी जांच अभी जारी है और सभी पहलुओं को जांचे बिना हम किसी को भी गिरफ्तार नहीं कर सकते। हम कोई कदम जल्दबाजी में नहीं उठा सकते। मनीष के मुताबिक पुलिस इस केस में सबूत जुटा रही है। चौधरी ने कहा कि हम ताजा एफआईआर को सीबीआई को ट्रांसफर कर रहे हैं,ऐसे में राठौड़ को हिरासत में लेने का सवाल नहीं उठता है। उन्होंने कहा कि इस केस में सीबीआई पहले से ही जांच करती रही है, ऐसे में पुलिस सीबीआई को ही केस ट्रांसफर कर रही है।
ताज़ा एफआईआर के बाद कोर्ट में चल रहे मामले में राठौड़ को अग्रिम जमानत नहीं देने वाले सेशन जज संजीव जिंदल ने इस मामले में हीलाहवाली के लिए राज्य सरकार खासकर हरियाणा पुलिस की खिंचाई की। जज जिंदल ने शुक्रवार को टिप्पणी करते हुए कहा, या तो पुलिस अफसर और कानूनी अफसर इस मामले में इतने काबिल नहीं हैं या फिर ताकतवर पुलिस अफसर रहे और सियासी पहुंच रखने वाले आरोपी (राठौड़)के जबर्दस्त दबाव के आगे झुकते हुए जानबूझकर इस केस में लापरवाही बरती जा रही है।

शुक्रवार, जनवरी 08, 2010

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