रविवार, फ़रवरी 28, 2010

होली पर देव डी की दर्द भरी दास्तान

साथियों, प्रूफ की गलती के चलते पहले वाली पोस्ट में कुछ महाभूल हो गयी थीं, माफी के साथ संशोधित कविता पेश है


होली पर हंसी की बात न हो तो मज़ा क्या है, तो लीजिए पेश है वोह कविता जो हमने कॉलेज के दौर में मस्ती के मूड में लिखी थी
साल भर देखे ख्वाब जिसके संग खेलने को होली

होली के दिन वोह किसी और की हो ली

और हमारी खाली रह गयी झोली


साल भर डालते रहे जिस पर हम डोरे

एक दिन उसीने हमें पहना दी डोरे

और लाड से बोली राखी का बंधन निभाना भैया मोरे


दीवाली पर हमने नया तरीका आजमाया

उनके पास जाकर श्रद्धा से सर झुकाया

और कहा, हम तो बस इतना जानते हैं

की आपको ही लक्ष्मी मानते हैं

अब तो दीवाली तब ही मनाएंगे

जब आपको बना के लक्ष्मी घर पर लायेंगे

वोह बोली, आपकी भावना मैं जानती हूँ

आप मुझे लक्ष्मी, मैं आपको लक्ष्मी का वाहन मानती हूँ



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सभी को होली की शुभकामनाएँ

आपका

देव.डी

शनिवार, फ़रवरी 27, 2010

रत्नाकर की कलम से मुकाम सुकून

बीती देर रात ऑफिस से आने के बाद न जाने मन कैसा हो रहा था, जब अति हो गयी तो कुछ लिख डाला, कृपया देखिए

नूरे-माजी में छिना

वो तीरगी का लुत्फ़

अगरचे मुकामे सुकूं

तलाशा किये थे हम
***************

मारा तुझसे अहद ने

पसे-नज्द ला के हमको

वरना मंजिले-ज़िन्द

आ ही चुके थे हम

******************

सदके मैं कुफ्रे-ज़िन्द

एक आह ही बची है

यूं तो शबाबे-महशर

पा ही चुके थे हम
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अल्लाह क्या है दोजख

ओ क्या जन्नत का ख्वाब?

कुरबां दिले-साहिर

सब भूल गए थे हम
********************

रहे सलामती उनकी

रस्मे-ज़फ़ा के संग

अशआर जिनकी खातिर

अब बन गए हैं हम

शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

इस साले सिस्टम का क्या करें

मध्य प्रदेश में एक नाटक काफी चर्चित है, 'इस साले साठे का क्या किया जाये?' यह नाटक कई बार मंचित किया जा चुका है और मैंने भी इसे एक बार देखा है, इस तरह के और भी आयोजन देखे हैं और हर बार मन में कई सालों (भाषा के लिए माफ़ी चाहता हूँ ) के लिए येही सवाल उठता है की इनका क्या किया जाये? यह "साले " वोह हैं जो हमारे यहाँ के भारत भवन में मुफ्त प्रदर्शित किये जाने वाले हर नाटक में आगे की सीट पर नज़र आते हैं। वेह पूरे नाटक के दौरान बार-बार ऊंची आवाज़ में संवाद की तारीफ, अदायगी की तारीफ आदि करते हैं और सब का ध्यान अपनी और खींचने की कोशिश करते हैं। वस्तुतः, एक कला प्रेमी होने से ज्यादा उनका ध्यान स्वयं को 'आगे की सीट का दर्शक ' बताने में रहता है। इन्हीं 'सालों ' में ऐसे मुफ्तखोर भी हैं, जो मुफ्त के मनोरंजन के लिए कला मर्मग्य बन जाते हैं, आयोजन में समय बिताने के लिए जाते हैं और अनावश्यक भीढ़ बढ़ा देते हैं, जबकि इनके चलते कई बार उस प्रस्तुति के सच्चे प्रशंसक को निराश होना पड़ता है। ऐसे "सालों " के दो उदहारण देता हूँ, सन १९९४ में इस्माइल मर्चंट की फिल्म मुहाफ़िज़ रिलीज़ हुई। चूंकि इसका अधिकाँश हिस्सा भोपाल में फिल्माया गया था, इसलिए पहले दिन यहाँ के रविन्द्र भवन में फिल्म का मुफ्त प्रदर्शन रखा गया। उसे देखने के लिए मानो पूरा शहर वहाँ आ गया था। रविन्द्र भवन में पांव रखने की भी जगह नहीं बची थी, यह बात और है की इस स्थान से कुछ ही दूरी पर बने रंगमहल टाकीज (अब सिनेप्लेक्स ) में उसी समय इस फिल्म का शो खाली गया, क्योंकि उसे देखने के लिए टिकेट लेना ज़रूरी था।
पिछले साल प्रसिद्द फिल्म स्लाम्दोग का रविन्द्र भवन में मुफ्त शो रखा गया, एक बार फिर मुहाफ़िज़ जैसे ही हालत बने। उस समय भी इस फिल्म के संगम टाकीज में शो चल रहे थे, जो लगातार खाली गए। वाकई इन "सालों " के चलते कहना पड़ता है "मुफ्त के मनोरंजन की जय हो "

सोमवार, फ़रवरी 08, 2010

रत्नाकर की कलम से... ख्वाब और हकीकत

कुछ अजीब मूड में लिखी थी यह पंक्तियाँ, दास्तान किसी और की थी और तसव्वुर मेरा, गौर फरमाइए

तसव्वुर तेरा , उसे भी रहा मुझे भी

दीदार तेरा, उसे भी हुआ, मुझे भी

मोहोब्बत तेरी, उसे भी मिली मुझे भी।

फरक तो था, फ़क़त इतना...

हकीकत उसके दामन थी

ख्वाब मेरे रहे हमदम।

रविवार, फ़रवरी 07, 2010

दूसरों की कलम से जो लगा बहुत ही अच्छा

नाम याद नहीं आ रहा, लेकिन उनका सरनेम त्रिपाठी है, सागर के हैं, उनकी एक कहानी "सिगरेट " उनके किसी कहानी संग्रह में पढी थी। आज तक उसे नहीं भूल सका हूँ। युवा मानसिकता को समझाने वाली ऐसी कहानी मन को छू जाती है। इसी संग्रह में शामिल "हार जीत " भी बेहद अच्छी थी। एक और कहानी का नाम भूल गया हूँ, वोह भी मर्मस्पर्शी थी, जिसमें एक युवक सफ़ेद दाग से पीड़ित अपनी माँ का जीवित अवस्था में पिंडदान कर देता है। कभी किसी का त्रिपाठी जी से संपर्क हो तो कृपया उन्हें मेरा अभिवादन ज़रूर कह दें।
सारिका के काफी पुराने एक अंक में कृष्ण कालिया की स्टोरी "पीले फूलों वाली फ्रोक " पढी थी। आज भी जब उसे पढ़ता हूँ तो हमेशा लगता है की कुछ और बेहतर कुछ और नया पढ़ा है। उस कहानी में बचपन की भावनाओं की अधेड़ अवस्था में जो अभिव्यक्ति बताई गयी, उसका कोई जवाब नहीं है।
इलाचंद्र जोशी का उपन्यास "संन्यासी " कॉलेज के समय में काफी बार पढ़ा था, लेकिन अब वोह देखने ही नहीं मिलता है। कई पुस्तकालय भी देख चुका हूँ, किसी को इसके बारे में पता चले तो कृपया बताएं , नहीं तो उसे पढ़िए ज़रूर

शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2010

तोड़ दें कलम

यदि मैं जज होता तो इसे फैसले के रूप में लिखता और फिर कलम तोड़ देता। बात एक लाइन की है राज ठाकरे के बारे में कुछ भी लिखना बंद कर दीजिये, आप चाहें उसकी लाख बुराई कर लें लेकिन इससे उसका नाम ही चल रहा है, और यह ही वोह चाहता है। उसकी और ध्यान देना बंद कर दीजिये, देखिये वोह खुद ही चुप हो जाएगा। यह मैं उसके बारे में पहली और आख़िरी बार लिख रहा हूँ, भगवान् न करे की दोबारा कभी उसके बारे में लिख कर अपनी लेखनी को प्रदूषित करना पड़े।

गुरुवार, फ़रवरी 04, 2010

मुड़कर भी नहीं देखा.......

दोस्तों, एक शेर है
''मुड़कर भी नहीं देखा झोंके की तरह उसने
वोह, जो मेरे बराबर से हंसते हुए गुज़रा है''

क्या हिंदी फिल्म्स के कई नाम आज ऐसा ही नहीं सोचते होंगे? सफलता एक बार उनके करीब आई, उनके साथ चली और फिर उनसे आगे निकल गयी, फिर उनके आसपास यूं बिखर गया सन्नाटा, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। कुछ ने अपने फैसलों की गलती की सज़ा भुगती और कुछ हालात के शिकार हो गए। हमराज़ की (सुनील दत्त fame ) विम्मी तो आपको याद होंगी, किस क़दर धमाकेदार शुरुआत थी उनकी, मासूम चेहरा और काफी कुछ बोलने को आतुर आँखें, इन्होने उन्हें रातों रात सितारा बना दिया था। उसके बाद वोह शशि कपूर के साथ पतंगा में दिखीं, फिल्म औंधे मुंह गिरी, आप जानते हैं की फिर विम्मी का क्या हुआ? हज़ारों दिलों की धड़कन वोह अभिनेत्री एक अस्पताल में लावारिस मरी मिली। महंगा इलाज़ तो दूर, उनके पास देसी शराब पीने के भी पैसे नहीं बचे थे। सारी पूंजी अपने फोटो सेशन और फिल्म के प्रचार पर खर्च कर चुकी विम्मी खामोश हो गईं।
क्या आपने कभी फिल्म स्टार तापस पाल का नाम सुना है? शायद नहीं, यह वोह ही शख्स था, जिसके साथ माधुरी दीक्षित ने "अबोध " फिल्म से अपना करियर शुरू किया था, माधुरी ने बाद में सफलता के झंडे गाड़े और तापस न जाने कहाँ पीछे रह गए। क्या आप स्वरुप दत्त को जानते हैं? वे कभी जया भादुड़ी के साथ हीरो बनकर "उपहार " फिल्म में आए थे, जया कहाँ से कहाँ पहुँच गईं और स्वरुप न जाने कहाँ रह गए? नूतन बेहतरीन अभिनेत्री तक का सफ़र तय कर चुकीं लेकिन उनकी सुपर हिट फिल्म "सरस्वती चन्द्र " के हीरो मनीष का अब कोई नाम भी नहीं लेता है। .
गायकी में एक समय अपना मुकाम बनाने वाले शैलेन्द्र सिंह की गुमनामी भी त्रासदायी है। दो जासूस के बाद उन्हें हीरो बनने की सूझ गयी, उन्हें रेखा के साथ अग्रीमेंट जैसी फिल्म भी मिल गयी, लेकिन आगे वे अभिनय में सफल नहीं रहे और न ही गायकी में उन्हें पुराना मुकाम मिल सका।

काजल किरण ने जब ऋषि कपूर के साथ "हम किसी से कम नहीं " की तो वेह सुर्ख़ियों में आ गईं, उन्हें मिथुन के साथ एक दो फिल्म भी मिलीं, लेकिन बाद में वोह सिर्फ रामसे बंधुओं की फिल्म्स तक ही सीमित हो गईं, हालत यह हुई की उन्हें अनिल कपूर की फिल्म "अन्दर बाहर " में आयटम नंबर करना पड़ा, वोह भी अंग प्रदर्शन के साथ। काजोल आज स्थापित अभिनेत्री हैं, लेकिन उनकी पहली फिल्म "बेखुदी " में उनके हीरो बने कमल सदाना गुम हो चुके हैं। किसी समय "मैंने प्यार किया " के जरिये हर दिल में जगह बनाने वाली भाग्यश्री के लिए अब रोल के लाले हैं, उन्हें तो अक्षय कुमार की बहन का छोटा रोल (हमको दीवाना कर गए ) तक करना पड़ा

प्रतिघात की ज़बरदस्त सफलता के बाद चर्चा में रहीं सुजाता मेहता की प्रसिद्धि का सफ़र बस इतना हीरहा , बाद में वे "कंवरलाल " जैसी इक्का-दुक्का फिल्मों में दिखीं और फिर गायब हो गईंकुली में धमाकेदार शुरुआत करनी वाली शोभा आनंद आज अपने मोटापे के चलते कोमेडी कर रही हैं और तब उनके हीरो रहे ऋषी कपूर भरपूर नाम कमाने के बाद अवकाश का जीवन बिता रहे हैंफरदीन के पास भी ठीक ठाक मुकाम है, लेकिन उनकी पहली फिल्म "प्रेम अगन " की हेरोइन अंजलि जठार जाने आज कहाँ हैं? "कहो प्यार है " के बाद ऋतिक आज शिखर पर हैं और उनकी हेरोइन अमीषा पटेल का पता ही नहीं है
वाक़ई वक़्त बेहद बलवान है

एक था सुभाष घई

दोस्तों, सुभाष घई तो आपको याद होंगे। ठीक, वोह ही जिन्होंने एक दौर में "हीरो" और "कर्मा" जैसी फिल्म बना कर खासी वाहवाही बटोरी थी। उनकी "रामलखन" ने भी सफलता के झंडे गाड़े थे। यह बात और है कि इनमे से एक भी फिल्म में कुछ खास नहीं था, वस्तुतः सभी फिल्म्स घिसी पिटी कहानी पर बनी थीं, लेकिन भाटों का क्या करें? भाई लोग सक्रिय हुए और अचानक घई को शोमैन का खिताब दे दिया गया, वोह खिताब जो इससे पहले राज कपूर को मिला था। कमाल है की किसी ने भी इन भाटों से नहीं पूछा कि भाई कहाँ राज कपूर और कहाँ सुभाष घई? उस शोमैन ने "आवारा" जैसा उस वक़्त का अनछुआ कांसेप्ट दिया, बहुत कम उम्र में "आग" जैसी कृति रची। मैं आह, बरसात, संगम, बोबी, बीवी ओ बीवी, कल आज और कल जैसी फिल्मों को अलग कर दूं तब भी, मेरा नाम जोकर, जागते रहो, बूट पॉलिश, सत्यम-शिवम्-सुन्दरम, राम तेरी गंगा मैली, राजकपूर को वाकई शोमैन के लायक बनाती हैं। क्या श्री घई या उनके फैन्स उनकी एक भी फिल्म को राजकपूर के पासंग बता सकते हैं? हाँ, धुन या यादें ज़रूर ऐसी फिल्म्स थीं जो घई को अलग पहचान देती हैं, लेकिन घई उनकी दिशा में जा तक मुड़े, शायद देर हो चुकी थी। अब शोमैन का खिताब बरकरार रखने के लिए घई को वोही राजकपूर बनाना होगा, जिसने जोकर की असफलता के बाद बोबी पर दाँव लगाया और कामयाब रहे........................... सुन रहे हैं, श्री घई???????????

मंगलवार, फ़रवरी 02, 2010

पापाजी के लिए

पापाजी, लोगों ने मुझे कहा पागल
और कहा दीवाना
उस ठंडक की रात, जब उन्होंने देखा कि
ठंडक से सिहरते, बगैर गरम कपड़ों के
एक आदमी को, मैंने पहना दिए अपने गरम लिबास
और खुद, उस दो पहियों वाली गाडी पे चल पडा, घर की तरफ,
ठिठुरता हुआ। सब हँसे, पापाजी !
मगर, मैं तो वोह ही याद कर रहा था,
जो आप बचपन से मुझे याद करवाते थे,
"हे भगवान् दया करो, सब जीवों का भला करो,
सबको खाना पानी दो, सब को पूरे कपड़ो दो "
पापाजी, मुझे लगा कि भगवान् जी की बात आपकी ही मुझ से
कह रहे थे, इसलिए मैंने वोह किया...........
अब लोग पागल कहते हैं
तब, उनके स्वरों से बचने के लिए मैं कहता
हूँ ."हे भगवान् दया करो, सब जीवों का भला करो,
सबको खाना पानी दो, सब को पूरे कपड़ो दो "
तब भी पापाजी लोगों का शोर बंद नहीं होता है,
तो मैं अपने कान ही कान में कहता हूँ, पापाजी! पापाजी! पापाजी!
क्योंके मैं जानता हूँ, पापाजी और कोई नहीं हो सकता। सिवाय आप के

आपका बेटा पागल हो सकता है, लेकिन आप हमेशा पापाजी ही रहेंगे
हमेशा की तरह मेरा पूज्यनीय, पापाजी!

आप की बहुत याद आती है।


रत्नाकर

कैसे-कैसे लोग- रत्नाकर के सच्चे अनुभव

दोस्तों, बचपन से आज तक कई ऐसे लोगों से मिला हूँ जो या तो स्वयं बेहद असामान्य थे और या उनसे मिलने के हालात विचित्र रहे, सब तो याद नहीं हैं, लेकिन जितने भी याद आते जाएँगे, उन्हें लिखूंगा ज़रूर, शायद उन में से ही कोई इसे पढ़ ले।

वो पोलिस वाला

तब शायद ९ में पढ़ता था, एक फिल्म लगी थी भोपाल शहर की भारत टाकिज में, नाम था पांच कैदी। फिल्म देख कर अकेला लौट रहा था, पैदल था, पोलिस कंट्रोल रूम के पास एक पोलिस वाले ने अचानक रोक लिया। अपनी पहचान बता देने के बाद मैं निश्चिन्त था की अब वोह मुझे जाने देगा, लेकिन उस भी पर न जाने क्या भूत सवार था, बोला "इतनी दूर तक पैदल ही जा रहे हो?" मेरे हाँ कहने पर वोह बोला परेड मैदान का एक चक्कर काट कर दिखाओ तो बस के पैसे दे दूंगा, मैं फँस गया था, क्योंकि घर से चोरी छिपे फिल्म देखने गया था, बस के पैसे नहीं, मैं तो बस वहाँ से निकल जाना चाहता था। मरता क्या न करता? लगाया, लम्बे चौड़े मैदान का रोउन्द। बेमन से यह किया तो थक भी गया था। उसने पानी पिलवाया, बस के पैसे दिए और बोला "यदि तुम्हारे पिताजी चाहते की तुम पोलिस में जाओ और उसके लिए ऐसा व्यायाम करो तो क्या तुम ऐसा करते?" मेरे हाँ कहने पर उसने अपना पता बताया और दो रुपये और दिए। कहा "साला मेरा बेटा मेरी ऐसी बात मानता ही नहीं है, फिल्म देखने ही चला जाये, लेकिन कुछ पैदल तो चले, तुम्हारी ही उम्र का है, उसे आकर समझाना " मैं फिर कभी उससे नहीं मिला लेकिन आज भी याद है जब बस में बैठ कर मैंने नीचे खड़े उस पिता की और देखा तो उसकी आँख भर आई थी। वोह कुछ संभला और फीकी हंसी हंसते हुए अजीब स्वर में बोला '' पता नहीं, आँख में क्या गिर गया है।'' बस चल पडी थी, मैंने महसूस किया उसकी आँख का पानी उसकी आवाज़ पर उतरने लगा था।

दूसरों की कलम से जो लगा बहुत अच्छा

सारिका के बहुत पुराने अंक में चार पंक्तियाँ पढी थीं, लेखक याद नहीं लेकिन पंक्तियाँ इतनी अच्छी थीं कि हमेशा के लिए याद रह गयी, आप भी सुनिए

" सन्नाटे में बैठे हैं अल्फाज़ वोही लेकिन

माने नहीं मेरे हैं, मतलब नहीं तेरा है"

ऐसे ही कहीं सुना था

' मीठी नदी कोई मिले तो अपनी प्यास बुझा लेना

हम से कुछ उम्मीद न रखना, हम तो सागर खारे हैं"


यह तो अद्भुत लगा

"शब्द-शब्द की आँखें नाम हैं
तुम्हें पता है? यह सब हम हैं"

पता नहीं किसने लिखा था, लेकिन इसे जब भी पढ़ा आँख भर आई

" रसोई में भभकते स्टोव को देखकर, कहती बाकी फिर

कभी में बहन
या, लाम पर भाई
कोई याद कर रहा है हमें"







bakee phir kabhee

सोमवार, फ़रवरी 01, 2010

वोह शोर नहीं उपकार है मनोज का

मनोज कुमार आज भारत कुमार के नाम से हंसी के पात्र बनाए जाते हैं, उनकी स्टाइल ज़्यादातर नौटंकी के करीब आंकी जाती है। ऐसा करना उन लोगों के लिए बेहद स्वाभाविक है जिन्होंने उनकी हालिया फ़िल्में ही देखी हैं। जिनमें संतोष, क्लर्क, कलयुग की रामायण शामिल हैं, लेकिन जिन्होंने शहीद से लेकर शोर तक देखी हैं उनके लिए मनोज को यूं खारिज कर देना शायद ही मुमकिन हो। कम से कम मेरे लिए तो नहीं ही है। उन फिल्मों में कलाकार का चयन इतनी खूबसूरती के साथ किया गया कि कई बार कहीं से कहीं तक एक्टर का किरदार से समन्वय न होने के बावजूद वोह अजीब नहीं लगा। मनोज कुमार का केमरा संचालन उस दौर के लगभग हर फिल्मकार से एकदम हट कर था। उनकी कहानी हट कर होती थी। यह उनका जोखिम ही था कि लिपस्टिक तथा foundation लगे ओंठ और चेहरों वाले हीरो और बाग़ में नाचने तक सीमित हेरोइन वाली बगैर कहानी की अनेक सफल फिल्म्स के दौर में उन्होंने शोर जैसी सफल सामाजिक फिल्म बनाई, जो आर्ट मूवी के काफी करीब थी। यह उनका ही कमाल था कि शहीद से पहले और उससे बाद की फिल्मों में बुरी नीयत के चलते बदनाम मनमोहन को उन्होंने शहीद में चंद्रशेखर आज़ाद बना कर पेश किया और दर्शकों की शाबाशी पाने में सफल रहे। प्राण को अच्छा आदमी बना कर पेश करने का जोखिम उपकार में उन्होंने उठाया और सब को अपनी सफलता से चमत्कृत कर दिया। उपकार उनकी गज़ब की फिल्म थी, जिसमें उन्होंने बोरिंग हुए बगैर यह बता दिया कि जय जवान जय किसान का मतलब क्या है। क्या आपने कभी वोह गाना देखा है 'दीवानों से यह मत पूछो' कितना बेहतरीन फिल्मांकन था उस गाने के पहले का, गाने के बीच का और गाने के बाद का। मदन पुरी हो चाहे हो कन्हैया लाल, या हों प्राण, सब मनोज जी की फिल्म में बेहतरीन लगते थे, मैं मानता हूँ कि 'क्रांति' के बाद से वो वैसे नहीं रहे लेकिन क्या वोह वो मनोज कुमार नहीं रह जाएँगे???????????????????????????????????????????????????????????????????????????????

रत्नाकर की कलम से---- हादसों के दरिया में

हमने तेरी नफरत से मोहब्बत संवारी थी
हादसों के दरिया में कश्ती ये उतारी थी

तेरा जो तगाफुल था, मेरा वो किनारा था
गैर से रिफाकत भी नाखुदा सी प्यारी थी

मेरे कल्बे-बिस्मिल को ज़ब्त ही से निस्बत थी
जुम्बिशों पर भी मेरी तेरी चुप तारी थी

तेरी जुल्फों की चमक, न ही दामन की महक
ये रसन की चाहत थी, दार की तैयारी थी

आख़िरी वो साँसें थीं, आख़िरी वोह ख्वाहिश थी
तूर पे तू आ न सकी, मैंने शब् गुजारी थी

जुर्म का हसीं मौका, गोर की ये तन्हाई
अपने से ही कहता हूँ, तू कभी हमारी थी

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