गुरुवार, मार्च 25, 2010

वोह शब्

कुछ दिनों से काफी कुछ जेहन में चल रहा था। बस वोह ही लिख रहा हूँ, रात के उन लम्हात का शुक्रिया कहते हुए जब खुद से ही रूबरू होने का मौका मिल जाता है, ऐसी ही एक रात के नाम

वोह शब, जो ओढी थी चादर तिरे ख़यालात की

वोह शब, जो मुन्तजिर थी तिरे सवालात की

वोह शब, जो खामोश थी मिरे जज़्बात सी

वोह शब, जो नीम थी मिरे हालात सी

वोह शब, रह गयी है कहीं पीछे
अब सहर का खौफ तारी है