सोमवार, मई 31, 2010

येह ज़िन्दगी

अपनी एक ताज़ा रचना पेश कर रहा हूँ

ज़ख्म-दर-ज़ख्म, फिर आस-दर-आस
किस कदर है
मायनेखेज़ येह ज़िन्दगी

धूप तक ही है मिलन, ओस का गुलों से
किस कदर है
मुख़्तसर येह ज़िन्दगी

जल-जल के जीता सूरज, आवारा फिरे चाँद
किस कदर है
बेकरार येह ज़िन्दगी

हीर भी थी उसकी, राँझा भी था उसी का
किस क़दर है
लाचार येह ज़िन्दगी

याद दिला तेरी , उधार दे दी चंद साँसें
किस कदर है
साहूकार येह ज़िन्दगी

तुझ से की जो ख्वाहिश, गुनाह नहीं है
किस कदर है
तलबगार येह ज़िन्दगी।

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अर्थ
मायनेखेज़- अर्थपूर्ण
मुख़्तसर- छोटी

शुक्रवार, मई 28, 2010

हम से न अब इस दिल का हाल पूछिए

तमाम ज़ख्मों पे न कोई सवाल पूछिए

सजा रखी थी खुशनुमा चेहरों की जो नुमाइश
क्यों उठ गयी उससे, नकाब न पूछिए

माजी को भूल कर जब फिर किया यकीन
मिला क्यों आशना खंजर, अब ये न पूछिए

वो जो हैं शब् भर महफिलों की जां
बिस्तरों की सिलवटों से उनका हाल पूछिए

मोम सा दिल, है पिघलता जिनके अन्दर
क्यों दिखाएँ संग बन के, उन से ही पूछिए
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अर्थ- नुमाइश- प्रदर्शनी
माजी- अतीत, बीता हुआ कल
आशना- पहचाना हुआ
संग- पत्थर

शुक्रवार, मई 21, 2010

क्यूं सावन आया है

अपनी एक और रचना पेश कर रहा हूँ, कृपया गौर फरमाइए

खुद पर आज हंसने का ख्याल आया है
जब येह सुना कि तूने हमें बुलाया है

हम तो आस छोड़, थे कर चुके हिसाब
कि ज़िंदगी से क्या मिला, क्या गवाया है

तोड़ चुकी दम सियाही जिन खतों की
उन खतों पे क्यूं आज सावन सा आया है

मायूसे-इश्क आँख न लगे आज शब्
आँख में इंतज़ार का लम्हा सजाया है

हमारा हो ख्याल कहीं, भूल चुके हम
"ठीक तो हो" का आज क्यूं पैगाम आया है

सच कहूं कि जब-जब भुलाया तुझको
उतनी दफा लबों पे तेरा नाम आया है

ऐ दो जहां के मालिक, लौटा दे गुज़रे पल
जवानी में चूका, आज वोह सलाम आया है

बुधवार, मई 19, 2010

गम की बारात

काफी देर से दिमाग में आ रही बातों को मैंने निम्न लिखित शक्ल दी है, कृपया गौर करें
धन्यवाद
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आंख का आंसू और न छालों का पानी निकले
येह ज़ब्त की दौलत सफ़र में काम आएगी

बहुत किया इंतज़ार किसी खास के आ जाने का
अब तो इस मंडप में गम की बारात आएगी

मालूम है कि मैं नहीं हूँ गुनाहगार, लेकिन
हरेक उंगली मेरी ही ऑर मुड़ जाएगी

जिस रोज़ किया था तूने मिलने का वादा
न पता था, उसी रोज़ रुत बदल जाएगी

जिस वक़्त उड़े फिरे थे आसमान में हम
क्या पता था कि वो डोर ही कट जाएगी

तुझसे कुछ कहने की तो थी सारी तैयारी
सोचा भी न था, ज़ुबान ही कट जाएगी

येह जान कर ही किया दिल का सौदा मैंने
एक रोज़ तू किसी और की हो जाएगी

मत बोलो, दीवानों से कि न जागो हर शब्
जवानी की है आदत, जाते-जाते जाएगी

शुक्रवार, मई 14, 2010

आखिर क्यूँ ??????

कुछ लिखा है, कृपया गौर फरमाइए





अक्सर करता हूँ अफ़सोस कि
तकदीर ने इंतज़ार के तमाम लम्हात
मेरे लिए तुझसे ही क्यों जोड़ दिए
कि
हिजाब के तेरे हर एक फैसले
मेरे हिस्से आने को ही छोड़ दिए

कि
माजी के तमाम दर्दनाक हिज्र
मेरे अफ़साने से ही जोड़ दिए

कि

नज़्द से उठते हर एक गुबार

मेरे मयक़दे को ही मोड़ दिए

कि

तेरे दर तक ले जा पाते जो
वोह ही सारे इशारे तोड़ दिए

कि

संग फेकने उठे तमाम हाथ
मेरी ही सिम्त यूं मोड़ दिए

कि

अब जब भूल गया था सब

क्यूं माजी से तार जोड़ दिए

अक्सर करता हूँ अफ़सोस कि
किस वादे पे यूं दुनिया छोड़ गए