शुक्रवार, नवंबर 29, 2013

मुफस्सिल-ए-आशिक़ी चाहे गलत कह जाए
उसकी मासूमियत हरेक जुबां पे रह जाए
वो तो कच्ची मिट्टी के पैमाने सी रखे तासीर
अगरचे जाम तो भरे मगर प्यास भी रह जाए
अंदाज़-ए-बयां जो  दिलकश  नहीं तो गुरेज़ क्यूँ
ज़रूरी  तो नहीं के वो ही चुप का दर्द सह जाए
अबके बरसात खुले रखेंगे चश्म-ए -नम  हम
के उनमें निहा  समंदर भी चुपके से बह जाए
बुतों को भी पसंद है अहतराम, तो ऐसा करें
 साथ बैठें कि शायद वो भी कुछ कह जाए

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रत्नाकर त्रिपाठी







शनिवार, नवंबर 09, 2013

वो जो नींद से है भरे हुए, हैं वो ख्वाब से डरे हुए 
क़ुर्बां मैं तेरे मुफलिसी, मेरे ख्वाब भी हैं मरे हुए 

था अश्क़ का नमक घुला, तेरे गेसुओं की याद में
फिर पूछती हो क्यों भला , मेरे ज़ख्म क्यूँ हरे हुए

उन्हें शक़्ल थी ईमान की, जो तेरी नज़र को ना पा सके
वो लफ्ज़ जो तेरी बज़्म में, ज़िल्लत से थे भरे हुए


जो ना चाहा था वो हो गया, दरमियाने हंसी मैं रो गया
बेक़सूर दिल यही पूछता, ये करम थे किसके करे हुए

छोड़ दे साग़र मेरे, उन जाम का हिसाब तू
जो जाम तेरे एहतराम में थे खाली तो कभी भरे हुए

सोमवार, अक्तूबर 07, 2013

फुरसत मिली तो भूल गया

कई दिन बाद दिल ने कुछ कहा तो कुछ लिख दिया 



फुरसत मिली तो भूल गया मैं किसी को ऐसे 
मसरूफियत में रहा हो उसी का ख़याल जैसे 

गमे-रोज़गार भर में शिद्दत से ढूँढा जिसको 
बहार का एक झोंका उडा  ले गया उसे जैसे 

शब् भर करा था सोचा कि  वस्ल का हो दिन 
नसीमे-सुबह ही दिखी कोई रकीब हो जैसे 

मेरी खामोशी को वो गुमां समझ बैठे कुछ यूं 
मेरे अलफ़ाज़ भी जो हो फ़क़त बे-मायने जैसे 

मैं तो वोही ही हूँ, जो मिला था तुझको पहले 
हालात बदल गए कुछ किसी बेवफा के जैसे 

रविवार, जुलाई 07, 2013

देवता बना के उसको



मेरी एक ताज़ा रचना पर कृपया गौर फरमाएं 








लहरें भी थीं शरीर, नाखुदा भी सो गया
बेक़सूर इक सफीना यूं ही गर्क हो गया

चाहत तो थी किसी की हरेक पल मगर
इज़हार के वक़्त मैं तसव्वुर में खो गया

फिर पूजा सभी ने देवता बना के उसको
मेरे दर्द पे जो था किसी बुत सा हो गया

कुछ ऐसी आरजू से मुझे आइने ने देखा
कि तेरी आरजू पे मेरा दिल ही रो गया

कागज़-ओ-कलम दोनों दगाबाज़ निकले
जो नाला कहा उनसे वो ही आम हो गया

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रत्नाकर त्रिपाठी

शुक्रवार, मई 10, 2013

मैंने कल्पना की है

 मैंने कल्पना की है 





विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने स्वीकार किया है कि  चीन यात्रा के दौरान उन्होंने चीनी फ़ौज द्वारा हमारे देश की ज़मीन पर  कब्ज़े के बारे में कोइ बात नहीं की। ऐसे में मैंने इस व्यंग्य के ज़रिये कल्पना की है कि  खुर्शीद ने चीन में किसी नेता के साथ आखिर क्या बातचीत की होगी............
 
चीनी- क्या हाल हैं? आज सूरज किधर से निकल आया! 
खुर्शीद- सब आपकी दुआएं हैं। बस कई दिनों से आना नहीं हो पाया। जब भी निकलने का सोचो, एक न एक झंझट आ जाता था। 
ची- चलो, कुछ दिन तो रुकोगे ना। भाभी को नहीं लाये? ले आते उनको भी। कम से कम घूम ही लेते यहाँ पर। ग्रेट वाल ऑफ़ चाइना वगैरह देख लेते तुम लोग। खैर, भाभी का वो NO GOODWILL ORGANISATION कैसा चल रहा है? 
खु- आपका मतलब एनजीओ? जी दुआएं हैं। बेगम आ तो जातीं लेकिन उन्हें "वाल" का फोबिया हो गया है। फिर चाहे चीन की वाल हो या फिर केजरीवाल। इसलिए नहीं आयीं। 
ची- ये केजरीवाल कौन है? 
खु- लम्पट है एक नंबर का। पता नहीं कहाँ का है,  लेकिन कसम से कह रहा हूँ कि  सूरत से तो वो  तिब्बत का रहने वाला दिखता है और इंग्लिश बोलता है तो लगता है कि  उसका अमेरिका से कोई सम्बन्ध है। खैर हमें क्या.....
ची- फिर तो ये बड़ा ही खतरनाक आदमी है। कुछ इलाज करना पड़ेगा इसका। ऐसे आदमी की तो जमकर पिटाई होनी चाहिए। 
खु- नहीं! हम अहिंसावादी हैं। 
ची- उसे डंडों से धुन देना चाहिए। 
खु- अरे नहीं! हम शांतिप्रिय हैं। 
ची- उसके हाथ-पाँव तोड़ डालने चाहियें। 
खु- छोडो, आप भी विषय से भटक रहे हो। ये सब सुनने से तो बेहतर है कि  मैं गांधी जी का कान पर हाथ रखा बन्दर बन जाऊं। हाँ, हाथ-पाँव तोड़ने वाली बात से याद आया कि  आपकी भाभी का एनजीओ विकलांगों की सेवा करता है। कुछ ज़रुरत हो तो याद कीजियेगा, बाकी तो आप समझदार हैं। 
ची- हूं..........
खु- जनसेवा का काम करता है हमारा एनजीओ, पूरे हिंदुस्तान में नाम चलता है उसका..........
ची- हूं..........
खु- हमारा संगठन विकलांगों को उपकरण बांटता है..........
ची- हूं..........
खु- हमारे खिलाफ किसी ने दुष्प्रचार किया था, झूठ था वो सब..........
ची- हूं..........
खु- आपकी बहु ने ख़ास आपके लिए आम का अचार, पापड, चिप्स, भेजे हैं। सब अपने हाथ से बनाया है उसने..........
ची (इस तरह अंगडाई लेते हुए मानो किसी महा मौनव्रत को समाप्त करने की घोषणा की जा रही हो) अरे! बहु को क्यों परेशान किया? 
खु- परेशानी वाली क्या बात है! आपकी बहु तो हमारे देश के एक राजनीतिक दल "आप" का अचार बनाना चाह रही थी। हम दोनों इसी मशक्कत में लगे हुए थे। बात नहीं बनी तो मैंने उस से कहा कि  "आम" को ही "आप" समझ ले और बना दे अचार। 
 ची- अब उसका अचार हम बना देंगे। बहु से कहो टेंशन मत ले। 
खु- जी। अब क्या बोलूँ! मैं तो गांधी जी का कान पर हाथ रखा बन्दर बन गया हूँ। 
ची- और कुछ ख़ास? 
खु- बस और कुछ नहीं, यहाँ आ गया, आपके दर्शन हो गए, बस और क्या चाहिए? 
ची- वो हमारे कुछ सैनिक गलती से तुम्हारे यहाँ आ गए थे, दरअसल हुआ ये था कि ..........
खु- अजी छोडिये! अब बच्चे हैं, घूमते-फिरते भटकते हुए आ गए होंगे। बल्कि मुझे तो ये बुरा लगा कि  बच्चे हमारे यहाँ तक आये और मैं उन्हें चाय के लिए भी नहीं पूछ सका। 
ची- चलता है। बच्चे भी बिजी थे। जल्दी ही लौट आये। 
खु- अब आपके बच्चे तो मेरे तो भतीजे ही हुए ना! हाँ समझ सकता हूँ, भतीजे बिजी थे, तब ही तो 1962 के बाद अब समय निकाल पाए "चाचा" के देश में आने का। 
ची- अरे हाँ! वो भी तो "चाचा" ही थे ना!! और आप भी! वाह!! क्या संयोग है। 
खु- आखिर अतिथि सत्कार हमारी परंपरा है। भतीजों से कहिये, कभी भी आ सकते हैं, हर बार एक न एक चाचा उनकी अगवानी के लिए मौजूद रहेगा। 
ची- इसी बात पर हो जाए एक-एक प्लेट हाका नूडल्स। 
खु- क्यों नहीं! हां, बस वो "अचार  बनाने वाली" बात मत भूलियेगा।
ची- नहीं भूलेंगे, बहु से कहो टेंशन मत ले। 
खु- मगर ध्यान से हम अहिंसावादी हैं, शांतिप्रिय हैं और..........हाँ! LAST  BUT  NOT  THE LEAST  कि  हमारा एनजीओ भी है..............................हाय री मजबूरी! मेरे सिद्धांतों और आदर्शों पर क्यों हावी हो रही है तू??????????????????????

शुक्रवार, मई 03, 2013

सायों को भी जुबां

अपनी एक ताज़ा रचना सादर पेश कर रहा हूँ 






कुछ तो ख़याल साये भी करते होंगे 
किसी आरजू में वो भी यूं मरते होंगे 

होगी तो सरगुज़श्त इक उनकी भी 
जिसके हर्फ़-हर्फ़ आह ही भरते होंगे 

जब भी गहराते हैं तीरगी के निशाँ
अपने वजूद को वो भी तो डरते होंगे

दीवार भी मिले है जब खामोश उन्हें
उनकी आंख के आंसू भी झरते होंगे

या खुदा दे ही देता सायों को भी जुबां
दुआ मन ही मन में वो करते होंगे 

मैंने कल्पना की है कि

शोक के माहौल पर व्यंग्य लिखना उचित नहीं, लेकिन अपने हिन्दुस्तानी भाई सरबजीत की हत्या पर कुछ ऐसा ही लिखने की हिमाकत  कर रहा हूँ। मैंने कल्पना की है कि  स्वर्ग पहुँचने पर सरबजीत की मुलाक़ात उन हज़रत  से हुई होगी, जो सन 1948  की जनवरी के अंतिम दिनों में भारत भूमि को त्यागकर सिधार गए थे। पेश है उन हज़रत  और सरबजीत के बीच हुई बातचीत का काल्पनिक अंश 
हजरत- " आओ सरबजीत, कोई तकलीफ तो नहीं हुई?"
सरबजीत- " तकलीफ तो है। मार-मार कर मेरी जान ले ली उन्होंने।"
ह- "कोई बात नहीं, उन्होंने एक गाल पर मारा तो तुम्हें दूसरा गाल आगे कर देना था। ऐसा नहीं किया तुमने?" 
स- "उन्होंने मौका ही नहीं दिया। उन्होने तमाचे तो मारे लेकिन मेरे गाल पर नहीं, बल्कि हमारे देश के गाल पर मारे। अब पता नहीं, देश ने दूसरा गाल आगे किया था या नहीं।" 
ह- "देश ने निश्चित ही दूसरा गाल भी आगे किया होगा, आखिर मेरा देश है वो। दुर्भाग्य है कि  हमारे देश के पास दो कश्मीर नहीं थे। ना ही हमारे पास दो अक्साई चीन थे। वरना जब हमारे प्यारे पड़ोसी ने एक कश्मीर छीना तो हम दूसरा भी उसके आगे कर देते। हिंदी-चीनी भाई-भाई ने अक्साई चीन बनाया तो हम दूसरे  अक्साई चीन के लिए भी ज़मीन आगे कर देते। खैर, जितना बन पड़ा उतना तो हमने किया। बाकि भारत भूमि और उसकी किस्मत।" 
स- "उन्होंने मेरी किडनी और दिल निकाल लिए............."
ह (बीच में टोकते हुए) " जब एक किडनी निकल रहे थे तब तुमने दूसरी भी किडनी उनके सामने की थी या नहीं? इस बात पर अफ़सोस जताया या नहीं कि  भाईजान मेरे पास दिल एक ही है, वरना दूसरा भी आपके आगे कर देता?"
स- "कैसे बोलता? मैं तो मर चुका  था ना?"
ह- " वैसे ही बोलते जैसे आज तक मैं बोलता आ रहा हूँ। खैर, अब तुमसे गलती हो गयी। यहाँ एक दिन का व्रत रख कर प्रायश्चित कर लेना। और सुनाओ वहाँ की जेल में कैसी मौज की?"
स-" काहे की मौज? दिन भर काम करता था, रात भर जेलर के पाँव दबाता था। समय मिलता तो घर वालों को याद कर रो लेता था।" 
ह-" वाह! सज़ा हो तो ऐसी। श्रम ही पूजा है, पाँव दबाना ईश्वर  की सच्ची अराधना है। फिर तुमने तो एक अल्पसंख्यक के पाँव दबाये। धन्य हो! लेकिन ये रोने वाली बात गलत है। तुम्हे तो चाहिए था कि  परिवार के लिए रोने की बजाय अपनी बिटिया को रोजाना चिट्ठी लिखते। बाद में उनका प्रकाशन होता "बाप के ख़त बेटी के नाम" शीर्षक से। और समय मिलता तो किताब लिखते, जिसमें भारत से पकिस्तान तक जाने की यात्रा का संस्मरण होता। वो किताब भी छपती "डिस्कवरी ऑफ़ पाकिस्तान" के नाम से। मगर तुमने सारा  समय और ऊर्जा रोने में व्यर्थ कर दिए। जानते नहीं समय की बर्बादी भी एक तरह की हिंसा है। जबकि जेल में बैठ कर ठाठ से खातो-किताबत करना स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। " 
स-" ये गलती हो गयी, लेकिन अब आपने प्रेरणा दी है तो अपने और अपने परिवार वालों के अनुभवों के आधार पर यहाँ बैठ कर एक किताब लिख सकता हूँ " सत्य के साथ मेरे सम्भोग" 
ह- " ये क्या शीर्षक हुआ भला!"
स- "एकदम सही है ये शीर्षक। इस्लामाबाद से ले कर दिल्ली तक की नब्ज़ थामे माननीयों ने सफलतापूर्वक इस शीर्षक वाले नुस्खे का उपयोग अपने हित के लिए किया है। " 
ह- "तुम तो अश्लीलता पर उतर आये, ये भी एक तरह की हिंसा है। खैर, तुम्हारे परिवार वाले कैसे हैं?" 
स- "बहुत दुखी हैं, उनके लिए कुछ उपचार बताइए।"
ह- " सरल उपचार है। परिवार वालों से कहो कि  पकिस्तान से भारत आये किसी घुसपैठिये को अपने घर में पनाह दें। उसे आतंकवादी शिविर चलाने के लिए जगह मुहैया कराएँ। उसके अध्ययन के लिए भारत विरोधी साहित्य का बंदोबस्त करें। फिर उसे गोला-बारूद खरीदने के लिए पैसे दें, ताकि वो भारत भूमि पर अपने पवित्र मंसूबे पूरे कर सके। उनसे कहो ऐसा हर घुसपैठिये के साथ करें, तब तक करते रहें जब तक कि  घुसपैठियों का ह्रदय परिवर्तन ना हो जाए........."
स- "और ये ह्रदय परिवर्तन कब होगा?" 
ह- " अधीरता भी एक तरह की हिंसा है। ये सवाल बेमानी है।" 
स- आपने कहा कि  घुसपैठियों को पैसे दें, मेरा परिवार तो गरीब है, फिर........."
ह- "बनो मत! पंजाब सरकार तुम्हारे परिवार को 1करोड़ रुपये दे रही है। वो कब काम आयेंगे? धन संग्रह भी एक तरह की हिंसा है। अपने परिवार से कहना इस हिंसा से भी बचे। अब तुम जाओ, ये मेरी प्रार्थना का समय है।" 
स- "मेरी आत्मा की शांति के लिए भी प्रार्थना कर लेना" 
ह-" स्वयं की शांति के लिए दूसरों से अपेक्षा भी हिंसा का एक रूप है। अहिंसक बनो। और वैसे भी अब तुम स्वर्ग में हो, मेरे साथ हो, फिर शांति के लिए प्रार्थना की भला क्या ज़रुरत रह जाती है?"
स- " मैं नीचे आपके विचार वाले देश में पला-बढ़ा, आपकी चिंता का केंद्र रहे मुल्क की जेल में सड़ा। सब जगह मेरे साथ जो कुछ हुआ वो आपसे भी छिपा नहीं है। इसलिए यदि मृत्युलोक का काल भी आपके साथ ही बीतना है तो मुझे शांति की प्रार्थना की आवश्यकता तो होगी ही ना" 
ह- अपने देश और पड़ोसी की निंदा करना भी हिंसा का ही स्वरुप है। तुम जाओ, मुझे प्रायश्चित करने दो कि  मैंने तुम जैसे हिंसक इंसान से संवाद कायम किया। अब जाते हो या लाठी मार कर भगाऊँ !! जानते नहीं ये मेरी प्रार्थना का समय है.....................तुम भी आंख बंद कर ध्यान लगाओ और शुरू हो जाओ " चप्पा-चप्पा चरखा चले..........!!!!!!!!!!!!!"

रत्नाकर त्रिपाठी 

शनिवार, अप्रैल 06, 2013

शायर की जुबां सिली थी


सदियों तक खून के आंसू रोती  मिली थी 
वो सुई, जिसने शायर की जुबां सिली थी 

सदियों तक पशेमा हाल में ही मिली थी 
वो घड़ी, जिसमे इश्क की नीव हिली थी 

सदियों तक बस अश्क बहाती मिली  थी 
वो दीद, जिसमें गैर की तस्वीर खिली थी 

सदियों तक खिज़ा के असर में मिली थी 
वो कली, जिसको कांटे की चाह दिली थी 

सदियों तक मुझे ही पुकारती मिली थी 
वो आह, जिसमें कोई याद भी मिली थी 

रत्नाकर त्रिपाठी 

बुधवार, अप्रैल 03, 2013

मैंने एक कल्पना की है, कृपया देखिये

मैंने एक कल्पना की है, कृपया देखिये 
हिन्दुस्तान के दिग्गज घराने के मुकेश और अनिल के बीच दूरियां ख़त्म हो जाने के बाद दोनों भाइयों की अपने-अपने घर पर बीती रात (ठेठ हिन्दुस्तानी शैली में) 
पहले अनिलऔर टीना के बीच हुई बातचीत 
अनिल " सो गयीं क्या? अभी तो आठ ही बजा है"
टीना आँख बंद कर थक कर सोने की एक्टिंग करते हुए "कुछ नहीं! बस यूं ही कुछ सिर दुख रहा था। मुझे भूख नहीं है, खाना टेबल पर रख दिया है, नहीं खाओ तो प्लीज फ्रिज में रख देना। मैं सो रही हूँ"
अनिल (टीना के माथे पर हाथ रखने का असफल प्रयास करते हुए) क्या हुआ? बुखार तो नहीं है? लग तो नहीं रहा ऐसा................"
अनिल के इतना कहते ही टीना तुनक कर पलंग पर उठ बैठीं। लगा मानो अचानक कोई रामबाण दवा मिल गयी हो और सिर दर्द एकदम गायब हो गया हो। बोलीं "हाँ तुम्हें क्यों ऐसा लगने लगा! तुम तो लगे रहो भरत मिलाप में, वाह! यहाँ बीवी भले ही सिर दर्द से मर जाए लेकिन साहब को फुर्सत ही कहाँ है। लगे हैं भाई और भाभी की सेवा में। 
अब अनिल कुछ - कुछ माजरा भांप गए। फिर भी नर्म स्वर में बोले " अरे! मैं तो ऐसे ही मिलने चला गया था, वो ही जिद करने लगे कि समझौता कर लो, लेकिन मैंने तो साफ़ कह दिया कि मेरी टीना से पूछे बगैर कोई बात नहीं करूंगा" 
टीना ने फिर से सिर दर्द वाले एक्सप्रेशन पैदा किया और मुंह मोड़ कर बैठ गयीं। अनिल थूक गटकते हुए कुछ डरते हुए बोले " लेकिन क्या करता भाभी मानी ही नहीं, अपने सर की कसम दे दी, तो मैं भी मजबूर हो गया।"
टीना के सिर दर्द का एक और शार्ट ब्रेक शुरू हो चुका था, अब उनके सिर की बजाय गले में भारीपन की झलक मिल रही थी। वो भरे गले से बोलीं "भाभी के सामने तो देवर जी लक्ष्मण बन जाते हैं, आवाज़ ही नहीं निकलती है वहाँ जनाब की। याद है जब मैं शादी होकर आयी थी। मैडम कितनी जल गयी थीं मुझसे, अगले दिन ही नौकर से कह कर पूरे घर में मेरे और राजेश खन्ना के पोस्टर चिपकवा दिए। देव आनंद और मेरे नाम से मायापुरी, माधुरी और स्क्रीन में छपे आर्टिकल्स की फोटो कॉपी चुपके से मेरी सास के कमरे में रखवा दीं। और तुम................तुम चुपचाप रहे। हाय रे मेरी फूटी तकदीर, ऐसा मर्द मिल गया तो ये तो होना ही था। 
अनिल के लिए ये स्क्रिप्ट नयी नहीं थी। उन्हें इसका एक-एक शब्द कंठस्थ हो चुका था, सो चुपचाप सुनते रहे। बीवी बोलती रही " और तुम्हारा भाई, कहता था बहु से घूंघट करवाओ, इसका पल्लू सिर पर क्यों नहीं रहता है? अरे मैं दिन भर सबके लिए रोटी सेंक-सेंक कर कमर दर्द से बेहाल हो जाती थी, फिर भी किसी के मुंह से झूठ भी नहीं निकलता था कि बेटा तूने खाना खाया या नहीं? बस मियाँ बीवी बैठे, रोटियाँ तोडीं और घुस जाते थे बेडरूम में, आज वोही फिर से सगे हो गए...............
अनिल जानते थे कि स्क्रिप्ट के कुछ संवाद अभी शेष हैं, वे चुपचाप सुनते रहे। बीवी जी का टेप चालू था "और तुम्हारी माँ! बड़ा बेटा ही उनके लिए सब कुछ है और घर की बहू तो बस बड़े वाले की बीवी ही है। जब देखो तब मेरे मायके वालों को ताने देती रहती थीं। जैसे बड़ी वाली देवी जी के माँ-बाप तो साक्षात् देवता ही थे। वरना बताओ भला क्या कमी रखी थी पापा ने बारात की आवभगत करने की? दान-दहेज़ भी हैसियत से ज़्यादा ही दिया था उन्होंने, फिर भी वो बेचारे ही बुरे हैं। खैर, मैं भी किस से बोल रही हूँ। मेरे पल्ले तो श्रवण कुमार पड़ गया है, सीता का देवर लक्ष्मण पड़ गया है, मेरी ही मति मारी गयी थी जो तुम्हारे लिए हाँ कह बैठी वरना रिश्ते तो मेरे लिए भी एक से बढ़ कर एक आये थे। 
परम्परागत स्क्रिप्ट का ये आख़िरी संवाद था। अनिल कुछ देर चुपचाप बैठे रहे। फिर बोले, अच्छा चलो खाना तो खा लें, इस बारे में कल बात करते हैं। 
मगर बीवी जी यूं ही शांत होने वाली नहीं थी, उफन कर किसी मिमिक्री आर्टिस्ट की तरह बोलीं "क्यों, भाभी ने खाना नहीं खिलाया क्या, अपने हाथ से, पल्लू से हवा करते हुए................मेरा दिमाग मत खराब करो, कल से वहीं खाना और वहीं रहना................बड़े चले आये खाना खिलाने................!!!!!
दूसरा दृश्य 
मुकेश और नीता के बीच का संवाद कुछ ऐसा चला 
नीता बोलीं "कर आये भाई को विदा? आज तो मन में बल्लियाँ उछल रही होंगी। बिछड़ा भाई जो मिल गया................ ! अपनी प्यारी बहु को नहीं बुलाया तुमने................! उस बेचारी के बगैर कैसे मन लगा होगा तुम्हारा?"
मुकेश -" ये क्या बक रही हो? ये बिज़नस है, तुम नहीं समझोगी। और उसकी बीवी कहाँ से आ गयी बीच में? वो बेचारी तो यहाँ आयी भी नहीं थी................
अब तो नीता व्यंग्य से रौद्र की मुद्रा में आ गयीं। हाथ नचाती हुए बोलीं " अब वो बेचारी हो गयी और मैं क्या हूँ................बोलो-बोलो................बोलते क्यों नहीं कि मैं तो तुम्हारी लाचारी हो गयी हूँ। बेचारी माय फुट, कितनी बेचारी है वो, मेरा और भज्जी का फोटो पूरे घर में चिपकवा दिया था, मां के कमरे में उसकी कॉपी चुपचाप रखवा दी थी................और आज वो बेचारी हो गयी। वाह! क्या भोले भंडारी से पाला पडा है मेरा। 
अब बारी यहाँ की परंपरागत स्क्रिप्ट की थी और हमेशा की तरह उसके इकलौते श्रोता मुकेश ही थे। बीवी बोलती चली गयी " और तुम्हारी माँ , उन्हें तो बस छोटी बहु से ही लाड है, मैं और मेरे घर वाले तो फूटी आँख नहीं सुहाते हैं उन्हें, और तुम भी उनकी ही तरफ हो गए हो। चले हो समझौता करने। हाय रे मेरी फूटी किस्मत! मैं मर क्यों नहीं जाती!
स्क्रिप्ट में कुछ नयापन भांप कर मुकेश बीवी को बीच में टोकने का कर्म निभाने की मुद्रा में बोले "अरे! काहे का समझौता, वो तो मिलने आया था, माँ बोलीं तो मैं मिल लिया। पट्ठा मेरे पाँव पर गिर पड़ा, बोला भैया, समझौता कर लो। लेकिन मैंने भी साफ़ कह दिया कि नीता से पूछे बगैर कोई बात नहीं होगी। तुम तब सास-बहु का सीरियल देख रही थीं, इस लिए मैं बात नहीं कर सका, इस बीच उसने मुझे तुम्हारी कसम दे दी तो मैं क्या करता, समझौता कर ही लिया।"
"मैं क्या करता................" अब मिमिक्री की बारी नीता की थी................"क्यों मान ली उसकी बात, देने देते कसम और समझौता नहीं करते, ज्यादा से ज्यादा क्या होता मैं मर जाती, तो इस से तुम्हें क्या फरक पड़ता? यही तो चाहते हो न तुम भी? मरने देते मुझे, फिर आराम से रहते भाई और माँ के साथ और पेट भर-भर कर खाते छोटी वाली के हाथ का खाना। जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं है, मैडम ने शादी के बाद दो बार खाना क्या खिला दिया था, जेठ जी तो फ़िदा हो गए थे बहु पर, तारीफ करते नहीं थकते थे उसकी। तो अब जाओ................वहीं जाओ ना। यहाँ क्यों चले आये मेरे पास? 
नीता ने फिर स्क्रिप्ट की परंपरा का निर्वहन शुरू किया, रूंधे गले से बोलीं " और तुम्हारा भाई, बीवी नहीं आयी थी तब तक भाभी-भाभी कह कर मेरे पीची पड़ा रहता था, भाभी ये खिला दो, भाभी वो खिला दो, लगा रहता था। उसके चक्कर में सारा-सारा दिन रसोई में खटती रहती थी और बीवी आते ही कैसा रंग बदल दिया उसने। अरे! एक दिन मैं प्लेन से उतर कर बैलगाड़ी में पोज़ क्या दे बैठी, दुष्ट ने अखबारों में "घोडा-हाथी" कह कर मेरे फोटो छपवा दिये। जैसे मैं समझती ही नहीं हूँ कि वो हाथी और घोडा किसे कह रहा था। खुद की बीवी की शक्ल देखी है उसने, बड़ा आया समझौता करने वाला................
उपसंहार 
स्क्रिप्ट यहाँ भी ख़त्म होने ही वाली थी। दोनों घरों के एक-एक कमरे में तस्वीर में कैद हो चुके पिताश्री की तस्वीर तेज़ी से हिलने लगी। यदि तस्वीर बोल पाती तो मेरा दावा है उसने संशोधित नारा देने के अंदाज़ में कहा होता "दुनिया बाद में, पहले अपनी बीवियों को तो कर लो मुट्ठी में................"

मैंने एक कल्पना की है, कृपया देखिये


हिन्दुस्तान के दिग्गज घराने के मुकेश और अनिल के बीच दूरियां ख़त्म हो जाने के बाद दोनों भाइयों की अपने-अपने घर पर बीती रात (ठेठ हिन्दुस्तानी शैली में) 
पहले मुकेश और टीना के बीच हुई बातचीत 
मुकेश " सो गयीं क्या? अभी तो आठ ही बजा है"
टीना आँख बंद कर थक कर सोने की एक्टिंग करते हुए "कुछ नहीं! बस यूं ही कुछ सिर दुख रहा था। मुझे भूख नहीं है, खाना टेबल पर रख दिया है, नहीं खाओ तो प्लीज फ्रिज में रख देना। मैं सो रही हूँ"
मुकेश (टीना के माथे पर हाथ रखने का असफल प्रयास करते हुए) क्या हुआ? बुखार तो नहीं है? लग तो नहीं रहा ऐसा................"
मुकेश के इतना कहते ही टीना तुनक कर पलंग पर उठ बैठीं। लगा मानो अचानक कोई रामबाण दवा मिल गयी हो और सिर दर्द एकदम गायब हो गया हो। बोलीं "हाँ तुम्हें क्यों ऐसा लगने लगा! तुम तो लगे रहो भरत मिलाप में, वाह! यहाँ बीवी भले ही सिर दर्द से मर जाए लेकिन साहब को फुर्सत ही कहाँ है। लगे हैं भाई और भाभी की सेवा में। 
अब मुकेश कुछ - कुछ माजरा भांप गए। फिर भी नर्म स्वर में बोले " अरे! मैं तो ऐसे ही मिलने चला गया था, वो ही जिद करने लगे कि समझौता कर लो, लेकिन मैंने तो साफ़ कह दिया कि मेरी टीना से पूछे बगैर कोई बात नहीं करूंगा" 
टीना ने फिर से सिर दर्द वाले एक्सप्रेशन पैदा किया और मुंह मोड़ कर बैठ गयीं। मुकेश थूक गटकते हुए कुछ डरते हुए बोले " लेकिन क्या करता भाभी मानी ही नहीं, अपने सर की कसम दे दी, तो मैं भी मजबूर हो गया।"
टीना के सिर दर्द का एक और शार्ट ब्रेक शुरू हो चुका था, अब उनके सिर की बजाय गले में भारीपन की झलक मिल रही थी। वो भरे गले से बोलीं "भाभी के सामने तो देवर जी लक्ष्मण बन जाते हैं, आवाज़ ही नहीं निकलती है वहाँ जनाब की। याद है जब मैं शादी होकर आयी थी। मैडम कितनी जल गयी थीं मुझसे, अगले दिन ही नौकर से कह कर पूरे घर में मेरे और राजेश खन्ना के पोस्टर चिपकवा दिए। देव आनंद और मेरे नाम से मायापुरी, माधुरी और स्क्रीन में छपे आर्टिकल्स की फोटो कॉपी चुपके से मेरी सास के कमरे में रखवा दीं। और तुम................तुम चुपचाप रहे। हाय रे मेरी फूटी तकदीर, ऐसा मर्द मिल गया तो ये तो होना ही था। 
मुकेश के लिए ये स्क्रिप्ट नयी नहीं थी। उन्हें इसका एक-एक शब्द कंठस्थ हो चुका था, सो चुपचाप सुनते रहे। बीवी बोलती रही " और तुम्हारा भाई, कहता था बहु से घूंघट करवाओ, इसका पल्लू सिर पर क्यों नहीं रहता है? अरे मैं दिन भर सबके लिए रोटी सेंक-सेंक कर कमर दर्द से बेहाल हो जाती थी, फिर भी किसी के मुंह से झूठ भी नहीं निकलता था कि बेटा तूने खाना खाया या नहीं? बस मियाँ बीवी बैठे, रोटियाँ तोडीं और घुस जाते थे बेडरूम में, आज वोही फिर से सगे हो गए...............
मुकेश जानते थे कि स्क्रिप्ट के कुछ संवाद अभी शेष हैं, वे चुपचाप सुनते रहे। बीवी जी का टेप चालू था "और तुम्हारी माँ! बड़ा बेटा ही उनके लिए सब कुछ है और घर की बहू तो बस बड़े वाले की बीवी ही है। जब देखो तब मेरे मायके वालों को ताने देती रहती थीं। जैसे बड़ी वाली देवी जी के माँ-बाप तो साक्षात् देवता ही थे। वरना बताओ भला क्या कमी रखी थी पापा ने बारात की आवभगत करने की? दान-दहेज़ भी हैसियत से ज़्यादा ही दिया था उन्होंने, फिर भी वो बेचारे ही बुरे हैं। खैर, मैं भी किस से बोल रही हूँ। मेरे पल्ले तो श्रवण कुमार पड़ गया है, सीता का देवर लक्ष्मण पड़ गया है, मेरी ही मति मारी गयी थी जो तुम्हारे लिए हाँ कह बैठी वरना रिश्ते तो मेरे लिए भी एक से बढ़ कर एक आये थे। 
परम्परागत स्क्रिप्ट का ये आख़िरी संवाद था। मुकेश कुछ देर चुपचाप बैठे रहे। फिर बोले, अच्छा चलो खाना तो खा लें, इस बारे में कल बात करते हैं। 
मगर बीवी जी यूं ही शांत होने वाली नहीं थी, उफन कर किसी मिमिक्री आर्टिस्ट की तरह बोलीं "क्यों, भाभी ने खाना नहीं खिलाया क्या, अपने हाथ से, पल्लू से हवा करते हुए................मेरा दिमाग मत खराब करो, कल से वहीं खाना और वहीं रहना................बड़े चले आये खाना खिलाने................!!!!!
दूसरा दृश्य 
अनिल और नीता के बीच का संवाद कुछ ऐसा चला 
नीता बोलीं "कर आये भाई को विदा? आज तो मन में बल्लियाँ उछल रही होंगी। बिछड़ा भाई जो मिल गया................ ! अपनी प्यारी बहु को नहीं बुलाया तुमने................! उस बेचारी के बगैर कैसे मन लगा होगा तुम्हारा?"
अनिल-" ये क्या बक रही हो? ये बिज़नस है, तुम नहीं समझोगी। और उसकी बीवी कहाँ से आ गयी बीच में? वो बेचारी तो यहाँ आयी भी नहीं थी................
अब तो नीता व्यंग्य से रौद्र की मुद्रा में आ गयीं। हाथ नचाती हुए बोलीं " अब वो बेचारी हो गयी और मैं क्या हूँ................बोलो-बोलो................बोलते क्यों नहीं कि मैं तो तुम्हारी लाचारी हो गयी हूँ। बेचारी माय फुट, कितनी बेचारी है वो, मेरा और भज्जी का फोटो पूरे घर में चिपकवा दिया था, मां के कमरे में उसकी कॉपी चुपचाप रखवा दी थी................और आज वो बेचारी हो गयी। वाह! क्या भोले भंडारी से पाला पडा है मेरा। 
अब बारी यहाँ की परंपरागत स्क्रिप्ट की थी और हमेशा की तरह उसके इकलौते श्रोता अनिल ही थे। बीवी बोलती चली गयी " और तुम्हारी माँ , उन्हें तो बस छोटी बहु से ही लाड है, मैं और मेरे घर वाले तो फूटी आँख नहीं सुहाते हैं उन्हें, और तुम भी उनकी ही तरफ हो गए हो। चले हो समझौता करने। हाय रे मेरी फूटी किस्मत! मैं मर क्यों नहीं जाती!
स्क्रिप्ट में कुछ नयापन भांप कर अनिल बीवी को बीच में टोकने का कर्म निभाने की मुद्रा में बोले "अरे! काहे का समझौता, वो तो मिलने आया था, माँ बोलीं तो मैं मिल लिया। पट्ठा मेरे पाँव पर गिर पड़ा, बोला भैया, समझौता कर लो। लेकिन मैंने भी साफ़ कह दिया कि नीता से पूछे बगैर कोई बात नहीं होगी। तुम तब सास-बहु का सीरियल देख रही थीं, इस लिए मैं बात नहीं कर सका, इस बीच उसने मुझे तुम्हारी कसम दे दी तो मैं क्या करता, समझौता कर ही लिया।"
"मैं क्या करता................" अब मिमिक्री की बारी नीता की थी................"क्यों मान ली उसकी बात, देने देते कसम और समझौता नहीं करते, ज्यादा से ज्यादा क्या होता मैं मर जाती, तो इस से तुम्हें क्या फरक पड़ता? यही तो चाहते हो न तुम भी? मरने देते मुझे, फिर आराम से रहते भाई और माँ के साथ और पेट भर-भर कर खाते छोटी वाली के हाथ का खाना। जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं है, मैडम ने शादी के बाद दो बार खाना क्या खिला दिया था, जेठ जी तो फ़िदा हो गए थे बहु पर, तारीफ करते नहीं थकते थे उसकी। तो अब जाओ................वहीं जाओ ना। यहाँ क्यों चले आये मेरे पास? 
नीता ने फिर स्क्रिप्ट की परंपरा का निर्वहन शुरू किया, रूंधे गले से बोलीं " और तुम्हारा भाई, बीवी नहीं आयी थी तब तक भाभी-भाभी कह कर मेरे पीची पड़ा रहता था, भाभी ये खिला दो, भाभी वो खिला दो, लगा रहता था। उसके चक्कर में सारा-सारा दिन रसोई में खटती रहती थी और बीवी आते ही कैसा रंग बदल दिया उसने। अरे! एक दिन मैं प्लेन से उतर कर बैलगाड़ी में पोज़ क्या दे बैठी, दुष्ट ने अखबारों में "घोडा-हाथी" कह कर मेरे फोटो छपवा दिये। जैसे मैं समझती ही नहीं हूँ कि वो हाथी और घोडा किसे कह रहा था। खुद की बीवी की शक्ल देखी है उसने, बड़ा आया समझौता करने वाला................
उपसंहार 
स्क्रिप्ट यहाँ भी ख़त्म होने ही वाली थी। दोनों घरों के एक-एक कमरे में तस्वीर में कैद हो चुके पिताश्री की तस्वीर तेज़ी से हिलने लगी। यदि तस्वीर बोल पाती तो मेरा दावा है उसने संशोधित नारा देने के अंदाज़ में कहा होता "दुनिया बाद में, पहले अपनी बीवियों को तो कर लो मुट्ठी में................"

मंगलवार, अप्रैल 02, 2013

मैंने कल्पना की है

अमेरिका के सैंडी प्रभावितों के लिए मेरे पूरी सहानुभूति है, ईश्वर न करे लेकिन यदि ऐसा कुछ वाकिया हिंदुस्तान में होता तो क्या प्रतिक्रिया होती इस की मैंने कल्पना की है 
- नेता जी टीवी पर आँखें गडाए हुए गुदगुदाते चेहरे के साथ मशगूल थे, अचानक रंग में भंग हुआ और उनका निज सचिव हाज़िर था। 
"बोलो " उकताए स्वर में नेता जी बोले,
"सर माफी चाहता हूँ लेकिन एक ज़रूरी सूचना देनी थी" निज सचिव डरते हुए बोला, 
"ज़रूरी सूचना" नेता जी सजग हो गए और सौम्य भी "अरे भाई! ज़रूरी बात है तो डर क्यों रहे हो, बोलो,,,,,,,,,"
"सर, वो सैंडी आने वाला है "
"सैंडी! ये कौन सा ठेकेदार है और इसका कौन सा प्रोजेक्ट हमने अटका कर रखा है?" नेताजी के स्वर की उत्सुकता बढ़ गयी।
"सर, वो ठेकेदार नहीं बल्कि तूफ़ान है, बेहद खतरनाक है "
अफसर ने "खतरनाक " शब्द का जानबूझकर इस्तेमाल किया था ताकि नेता को डिस्टर्ब करने का सही हक जता सके, लेकिन लगता था कि बात नहीं बनी। नेताजी का चेहरा बुझ गया, उन्होंने अफसर को घूरा और फिर टीवी पर नज़र लगाई। वहाँ नेताजी की पसंदीदा श्रेणी की , मानव शरीर की संरचना तथा उसके रोचक प्रयोग, की जानकारी देने वाली डीवीडी चल रही थी। इस शिक्षाप्रद आनंद को तो कोई मालदार ठेकेदार ही भंग कर सकता था, तूफ़ान की ऐसी औकात भला हो सकती थी! लेकिन करेला और नीम चढ़ा की तर्ज़ पर नादान और उस पर पढ़ा-लिखा अफसर इस शाश्वत सत्य से अनजान था। वो सिर झुका कर खड़ा हो गया
"तूफ़ान हमारे यहाँ आ रहा है?" नेताजी ने कुछ देर बाद ऐसी बेरुखी के साथ पूछा जैसे अफसर से पूछ रहे हों कि "देश ठीक चल रहा है?"
"जी सर, बिलकुल हमारे यहाँ ही आ रहा है" अफसर के स्वर में आशा का संचार होने लगा वो उत्साह से चहकने के अंदाज़ में बोला "वो आएगा तो समुद्र में भयानक हलचल मचेगी, किनारे तक तबाही मच जायेगी और,,,,,,,,,,,,,,,,,"
अचानक उसके उत्साह पर नेताजी की घूरती निगाहो ने ने ब्रेक लगा दिया "अबे बेवकूफ ये हमारे यहाँ समुद्र कहाँ से आ गया?"
"हैं न सर, केरल, मुंबई, तमिलनाडु, गोवा और ऐसी कई जगहों पर हमारे देश में समुद्र है" अफसर कुछ घिघियाते हुए बोला और नेताजी के भाव को भांप कर अगली गाली खाने की मुद्रा में तत्पर नज़र आने लगा
"तुम साले मूर्ख ही रहोगे,,,अबे हमारे यहाँ से हमारा मतलब हमारे संसदीय क्षेत्र से था, ये केरल-वेरल क्या लगा रखा है?"
"आप केंद्र में मंत्री हैं,,,,,,," अफसर ने नेताजी की याददाश्त दुरुस्त करने की ड्यूटी पूरी करने की गरज से कहा " मैंने सोचा,,,,"
नेताजी अफसर की मूर्खता पर मंद-मंद मुस्कुराते हुए टीवी को मुग्ध भाव से देखने में दोबारा तल्लीन हो गए,,,,,फिर कुछ सोच कर बोले "ये साला सैंडी कब तक आएगा?"
"सर, आज की रात "
"हूँ,,,,,,,ये दिल्ली में समुद्र है क्या? " नेताजी पहली बार कुछ चिंतित नज़र आये
"नहीं सर " अफसर राहत देने के अंदाज़ में बोला,,,"यहाँ सैंडी नहीं आ सकता "
"और ससुरा समुद्र तो हमारे संसदीय क्षेत्र से कोसों दूर तक भी नहीं है,,,," नेता जी भारी राहत के अंदाज़ में बोले और उन्होंने दीवार पर लगी अपने अराध्य की फोटो को नमन कर लिया, पूरी श्रद्धा के साथ। अब वे सुरक्षा के बोध से आत्मविश्वास से भरे नज़र आ रहे थे।
अफसर ने मौके का लाभ उठाने की गरज से कहा "हम भी आप के इलाके के ही हैं सर, वहाँ सैंडी आता तो बड़ी तबाही मच जाती,,,,,,,"
"हाँ भैया! न जाने हमारे कितने मतदाता कम कर जाता साला ये तूफ़ान,,,हम तो बर्बाद हो जाते " नेताजी क्षणिक तौर पर गंभीर हो गए। लेकिन वे इतने भी गंभीर नहीं थे कि अफसर को डीवीडी प्लेयर को पॉज मोड पर करने की ज़रुरत महसूस होती। वो नेताजी का अतीत जानता था। नेताजी का जीवन तूफानों से संघर्ष में ही गुज़रा था।, युवावस्था में वो कई हमउम्र लड़कियों के भाई तथा पिता द्वारा उठाये गए तूफ़ान का सफलतापूर्वक मुकाबला कर चुके थे, पैसे कमाने के संघर्ष में वे चोरी से ले कर उठाईगिरी और ठेके पर हत्या जैसे हथकंडों के सम्मान की खातिर पुलिस के तूफानों का कामयाबी के साथ सामना कर चुके थे, राजनीति में आज का मुकाम हासिल करने के लिए वे अपनी अंतरात्मा से उठते सच्चाई तथा नैतिक और चारित्रिक मूल्यों के तूफ़ान को कुचल चुके थे, अब क्या ऐसा संघर्षशील व्यक्तित्व सैंडी से घबराता? वो भी तब जब न दिल्ली में समुद्र था और न ही नेता के संसदीय क्षेत्र में।
"अब क्या करें सर,,,,,?" अफसर आत्मविश्वास से भरा बोलता गया "फिलहाल बचाव के उपाय कर लें? भारी नुकसान होना तो तय है"
"हूँ,,,,,," नेताजी गंभीर हो गए "ये समुद्र कहाँ-कहाँ बताये थे तुमने?"
अफसर ने नाम गिना दिए और एक ही सांस में ये काम पूरा करने के बाद इस तसल्ली के साथ खड़ा हो गया कि देश में पर्याप्त जगह समुद्र हैं।
"बस, इतने से समुद्र! कुछ बढाओ भाई, ऐसे कैसे चलेगा।" नेताजी निराश नज़र आने लगे थे
अफसर इस निराशा की प्रत्याशा में और उसे आशा में बदलने के लिए तैयार था, बोला "इतने बहुत हैं सर, मैंने कहा न खतरनाक तूफ़ान है, भयानक तबाही लायेगा "
"चलो तू कहता है तो मान लेता हूँ,,,,," नेताजी के स्वर में नैराश्य पूरी तरह नहीं कम हो रहा था, फिर भी वे जैसे खुद को आश्वस्त करने में लगे हुए थे
"चलो, अपने वाले अफसरों की टीम बनाओ, आज ही रात सब को इन जगहों पर भेज दो, अभी से आंकड़े थमा दो कि कितनी क्षति हुई और कितने मरे,,,,,," नेताजी बेहद अभ्यस्त अंदाज़ में किसी माहिर क्षतिबाज़ की तरह बोलते चले जा रहे थे - ",,,,,,,राहत राशि के लिए बड़े देशों और संगठनो को जो पत्र लिखो, उसमे भले ही प्रभावित जगहों की आबादी से ज्यादा की मौत बता दो लेकिन संसद में उत्तर देने और अखबारों में बयान देने के लिए मौत का आंकड़ा बेहद कम हो,,,,किसी सड़क दुर्घटना जितना,,,,," नेताजी का हुनर देख मन्त्र मुग्ध था अफसर। नेताजी बोले " विदेश और बड़े संगठनों से मिली मदद का काम तुम देखोगे, तुम हमारा ध्यान रखना और हम तुम्हारा,,,,,," यह कहते-कहते नेताजी के चेहरे पर भाईचारे का ऐसा भाव आ चुका था जो महात्मा गाँधी शीर्षासन जितनी मेहनत / प्रयास करने के बाद भी इस देश में नहीं ला सकते थे।
अचानक नेताजी के चेहरे पर प्रश्नवाचक चिन्ह आ गया, अफसर से गंभीर होकर बोले "तुम्हारी बिटिया की शादी कब है?"
"छः महीने बाद सर "
"हूँ,,,, तब तक तो अधिकतर राहत राशि आ ही चुकी होगी " नेता ने कहा और इसके साथ थी उसके और अफसर के चेहरे पर आश्वासन नज़र आने लगा, , उसी आश्वस्त अंदाज़ में नेता ने बोला "तब तक हमारी पत्नी भी यूरोप यात्रा में काम आने लायक इंग्लिश सीख चुकी होंगी, अब वहां जाएंगी तो शौपिंग भी तो करनी होगी न, तब इंग्लिश काम आ जायेगी"
"और सर, प्रभावित इलाकों में क्या बाटेंगे?" अफसर यूं उपेक्षित अंदाज़ में बोला जैसे किसी शाही भोज की योजना के अंत में सबसे गैर ज़रूरी सवाल के तौर पर पूछ रहा हो कि "भिखारियों को बचा हुआ खाना देना है क्या, वरना खाना सड़ जायेगा"
"छः महीने के बाद जो राहत की रकम आये उसमें से हमारा और तुम्हारा जेब खर्च निकल कर बाकी उन इलाकों में बाँट देना। वो बेचारे तुम्हारी बेटी के सुखमय वैवाहिक जीवन और हमारी पत्नी की सुखद यूरोप यात्रा के लिए दुआएं देंगे,,,,,,,,," नेता जी अपनी पेशागत मूल छवि से सर्वथा अलग किसी वास्तविक परोपकारी की तरह दिख रहे थे।
अफसर वहाँ से निकलने को ही था कि अचानक नेताजी के स्वर में उसे गुर्राहट और नैराश्य का मिला-जुला अहसास हुआ। अनुभव के पके अफसर ने बिना किसी क्लू की ज़रुरत महसूस किये बगैर टीवी की तरफ देखा। वहां डीवीडी अटक गयी थी। अफसर जान गया कि साला सैंडी से भले ही कोई बच जाए लेकिन ऐसी डीवीडी देने वाले को तो अब साक्षात् भगवान् भी नहीं बचा सकता है

मैंने एक कल्पना की है, कृपया देखें

भारतीय जनता पार्टी के  तत्कालीन अध्यक्ष नितिन गडकरी पर आरोप लग गया था कि  एक भाषण में उन्होंने महान दार्शनिक विवेकानंद की तुलना माफिया सरगना दाऊद  अब्राहिम से कर दी थी, यह व्यंग्य इस घटनाक्रम पर केन्द्रित है 


"जी, नमस्ते, मैं नितिन बोल रहा हूँ "
"कौन नितिन?"
" आपकी पार्टी का अध्यक्ष"
"अध्यक्ष! अच्छा वो पूर्ति वाले? यार तुम गड़बड़ आदमी हो। घपले किये वो तो चलो ठीक था। अब हमारे आदर्शों के लिए उल जुलूल बोल रहे हो "
"जी, कौन आदर्श? वो आदर्श हाउसिंग सोसाइटी वाले?"
" वो नहीं, फिलहाल तो हम उनकी बात कर रहे हैं, क्या नाम है उनका,,,हाँ वो देवानंद। क्या बोल दिया तुमने? उनकी तुलना दाउद से कर डाली"
" बिलकुल नहीं। मैंने तो किसी विवेकानंद के लिए बोला था, देवानंद के लिए कैसे बोलूँगा वो तो मेरे पसंदीदा हीरो हैं"
" हां वो ही जो भी आनंद है, क्या बोल दिया तुमने?"
"मैंने तो कहा था कि , छोडो भी आप, जो बोला था वो छपा है अपने सचिव से कहना कल आप को पढ़ कर सुना देगा। मैं तो ये कह रहा था कि ............"
" अरे बात मत बदलो। और अगर तुम को तुलना करनी भी थी तो किसी और से करते। तुलना उस दाउद से कर डाली जो विदेश में बैठा है। तुलना करने के लिए कोई स्वदेशी भाई नहीं मिला क्या? तुम जानते नहीं हो क्या कि स्वदेशी के प्रति हमारा कितना आग्रह है, प्रेम है ............?"
" स्वदेशी कौन? आप ही बता दें। मुझे तो कोई भी इतने बड़े क़द का नहीं लगता जिस से दाउद की तुलना करता ............"
" बको मत!अरे! अपना गवली है, छोटा राजन है, मुदलियार था, इन से तुलना कर देते। बल्कि हाजी मस्तान से तुलना करते तो स्वदेशी की भावना का संरक्षण तो होता ही, साथ ही यह सन्देश भी जाता कि हमारी पार्टी अल्पसंख्यकों को बराबर का सम्मान प्रदान करती है"
कुछ देर चुप्पी फिर " अच्छा ये बताओ ये क्या नाम है ............हां वो आनंद का आईडिया तुम्हें किसने दिया था?"
" वो आयोजन से एक रात पहले मैं शिकागो ब्यूटी की साईट देख रहा था, उस पर गलती से विवेकानंद जैसे कुछ फोटो भी पड़े हुए थे, साईट देर तक देखता रहा तो नींद ठीक से नहीं हुई थी, भाषण देने खड़ा हुआ तो खुमारी में विवेकानंद ही याद आ गया, वरना ऐसी गलती नहीं होती"
"गलती नहीं होती, मतलब? "
"मैंने सोचा था राम पर कुछ बोलूँगा ............"
"राम पर! अरे यार तुम बेवकूफ हो क्या, राम अब outdated हो चुका है, उससे तो अच्छा था कि तुम कृष्ण पर कुछ बोलते ............ कम से कम हमारे यहाँ उसका नाम तो अभी भी चलता ही है"
" अजी छोडिये! हमारे यहाँ तो "कृष्ण" भी outdated है, बेचारा यात्रायें करते हुए थक गया है, अब तो 'मुरली' के बजने की भी कम ही उम्मीद नज़र आती है। सब कल की बातें हैं हम किसी भी बात पर "अटल" कहाँ रहे हैं? अब तो बस इस बात का संतोष है कि पार्टी ने संघर्ष कर स्वतंत्र भारत यानी "स्वराज" की प्राप्ती कर ली, वरना लोग तो हमें किसी "महाजन" की नज़र से ही देखते थे, अब तो हम स्वराज प्राप्ति से ही संतोष कर लेंगे "
" समझदार हो, काफी आगे जाओगे............"
" आगे ही जा रहा था, पता नहीं ये विवेकानंद कहाँ से आ गया............अब आप ही कुछ करो"
"............हूँ............ये विवेकानंद करता क्या था? कुछ धंधा............मेरा मतलब बिज़नस?"
" धंधा करता तो मेरी जगह वो हमारी पार्टी का अध्यक्ष नहीं होता? शायद अच्छा स्टेज आर्टिस्ट था। मिमिक्री वगैरह करता रहा होगा। कहते हैं शिकागो जाकर भी उसने मंच लूट लिया था"
" दाउद भी बाहर जाकर वाहवाही ही लूट रहा है, फिर तो यार तुम्हारी तुलना गलत नहीं थी............दोनों ने ही देश के बाहर ............"
" आपने समझ लिया लेकिन अपने ही इसे नहीं समझ रहे, ये देवरमलानी सरीखे लोग तो मेरे जान के दुश्मन बन गए हैं।"
" छोडो, हम तुमसे खुश हैं, आराम से सो जाओ, कल हम ट्वीट कर देंगे, तुम्हारे पक्ष में"
"लेकिन ये ट्वीट भी विदेशी है और हम स्वदेशी, कोई कुछ बोलेगा ............तो?"
" अरे मूर्ख! तब हम कह देंगे कि स्वदेशी भी outdated हो चूका है"
" धन्य हैं आप, आप की जय हो"
" धन्य मैं नहीं "हम" हैं। अरे जब राम को कोने में खड़ा कर दिया तो इस स्वदेशी की भला क्या बिसात है? आराम से सो जाओ ............जय राम जी की............उफ़! ये आदत न जाने कब जायेगी, मेरा मतलब गुड नाईट।
" जी गुड नाईट, जय राम जी की तो outdated हो चूका है ......

मैंने एक कल्पना की है, कृपया देखिये

दिल्ली में सामूहिक ज्यादती के बाद लम्बे समय तक खामोश रहे प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह टीवी पर नज़र आये थे, उन्होंने इस मामले पर लिखा हुआ सन्देश पढ़ा और सन्देश ख़त्म होते ही कैमरामैन से पूछ लिया था "ठीक है" इस पर ही मैंने ये व्यंग्य लिखा है 



ये टुम क्या बोल डिया कैमरा के सामने? 
भैन जी गलती हो गयी। ओ जी, मैं तो कैमरामैन से पूछ रहा था कि "क्या देश में सब ठीक है?" 
देश के बारे में कैमरामैन से पूछ रहे ठे !!! शेमफुल है ये टो, क्या आप को नहीं पटा कि यहाँ अपनी सरकार है, फिर देश का हाल पूछने के क्वेशचन में टुम "ठीक" वर्ड का इस्टेमाल करने की हिम्मत कैसे कर गए? 
जी, मुझे लगा कि कुछ तो ठीक होगा ही
इसका मीनिंग है कि आपको आप की सरकार के अचीवमेंट के बारे में ही नहीं मालूम है। अरे! बाबा से पूछ लेते, वो ही सब बता देते आपको, आप को पता नहीं है क्या उनके नॉलेज के बारे में?
जी गलती हो गयी, अब बाबा से ही पूछूंगा।
अभी नहीं, बाबा अभी टेंशन में हैं
जी मैं समझ सकता हूँ, ये रेप वाला मामला किसी को भी टेंशन,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
उफ़! वो बलात्कार होने से नहीं बल्कि गुजरात में चमत्कार न होने से परेशान हैं, न जाने आप कब समझदार होंगे,,,,,,,अच्छा ये रेपिस्ट को फांसी वाले मामले पर क्या सोचा है?
आने दीजिये संसद में,,,,हमारे कुछ पार्टी वाले और बाकी धर्म निरपेक्ष ताक़तें मिल कर सारा मामला चलता कर देंगे
अच्छा! वो कैसे?
देखिये मिस्टर सॉफ्ट ये कह देंगे कि केवल अल्पसंख्यक युवती से रेप के मामले में ही फांसी होनी चाहिए। काया देवी कह देंगी कि फांसी मत दो, बलात्कारी को हाथी के पाँव के नीचे दबवा दो। हमारे मध्य प्रदेश वाले मिस्टर ..विजय कह देंगे कि श्री कसाब को फांसी देने के बाद सरकार को नए जल्लाद नहीं मिल रहे हैं उनके लिए नौकरी के विज्ञापन देंगे जिसमें केवल हिन्दुओं को ही रखा जायेगा क्योंकि वो ही आतंकवादी होते हैं। इसके बाद अन्जय इरूपम कह देंगे कि बीजेपी के इरानी चेहरे ही ठुमके लगा-लगा कर बलात्कार के लिए उकसाते हैं। वेणी परसाद कह देंगे कि पता लगाया जाये कि बलात्कारी मज़ा ले रहा था या उसने देश में अभी तक समाजवाद ना आने से दुखी होकर ये क़दम उठा लिया? हमारे घर के मंत्री कह देंगे कि मिस्टर बलात्कारी के खिलाफ कड़ी कार्यवाही होगी, फांसी-वांसी का बाद में सोचा जायेगा। आलू यादव कह देंगे कि फांसी की सज़ा देने की जगह हर बलात्कारी का नाम नितीश कुमार कर दिया जाये। इस से बड़ी सज़ा और कुछ नहीं हो सकती है। बस फिर क्या है, मामला उलझ जायेगा
फिर?
फिर क्या है? हम कह देंगे कि एकमत का अभाव है, सरकार क्या करे? अब तो बलात्कारी ही कुछ कर सकते हैं। सही कहा ना मैंने?
अरे! फिर से मतलब ये कि आप क्या बोलेंगे?
मैं! आप भी ग़ज़ब कर रही हैं? क्या आप इस डिबेट में शामिल नहीं होंगी?
क्यों नहीं होंगे? इस सवाल का क्या मतलब है?
अरे! जब आप वहाँ रहेंगी तो मेरी क्या मजाल है कि कुछ बोल दूं! आज तक ऐसा हुआ है क्या? आखिर पार्टी की रीति-नीति भी कोई चीज होती है।
वाह! समझदार हो गए हो आप
जी! आप तारीफ कर शर्मिंदा कर रही हैं। अब चलता हूँ, मेरा मौनी बाबा के साथ अपॉइंटमेंट है। नमस्ते

साहिल पे रुक के सोना था

मुझ सी थी फितरत उनकी, अंजाम भी मुझ सा होना था 
परदे में रहे जज्बे ओ ज़ख्म, बस चुपके से ही रोना था 

ख्वाहिशें तो मचलती ही रहीं बेकाबू किसी समंदर सी 
उनकी किस्मत में कहाँ साहिल पे रुक के सोना था 

एक नक्शा था जो कब का आसुओं में धुल गया
तेरे दर तक फिर भला कहाँ से जाना होना था

अपने नसीब में जब थी ही नहीं तेरे रुख की धूप
दिल में बोई फसल का बरबाद हश्र ही होना था

वाह री तकदीर की लिखाई का ऐसा गज़ब हाल
तुझको पाने से पहले ही लिखा तुझको खोना था

रत्नाकर त्रिपाठी

आसमान

आसमान, 
अश्क बहाते हो ओस की सूरत में 
भीतर छिपा के सारे रंज-ओ-गम 
तमाम रातों में यूं चुपचाप रोना 
फिर दिन में यूं खिला नज़र आना 
मानो बीती रात कुछ हुआ ही नहीं हो 

आसमान
मुझे भी सिखा दो अपना ये हुनर
कि बहुत कुछ समेटे हुए भीतर
पूरी खामोशी के साथ, तमाम रातों में
मैं हर लम्हा सिर्फ रोना चाहता हूँ
सुबह होने तक बस ऐसे ही.............

रत्नाकर त्रिपाठी

कमाल करते हैं पाण्डेय जी




मंगल पाण्डेय जी नमस्कार, सुना है आज ही के दिन यानी 29 मार्च को आपने बगावत कर दी थी। आप नाराज़ थे कि आप लोगों को जो कारतूस दिए गए हैं उनमें सूअर या गाय की चर्बी लगी है। आपने अँगरेज़ अफसरों पर दनादन गोलियां दागी। फिर पकडे गए। भाई लोगों ने आप को फांसी पर चढ़ा दिया। माफ़ कीजियेगा लेकिन आप ने ये करने में कुछ जल्दबाजी कर दी। जल्दबाजी तो खैर आपने पैदा होने में भी कर दी। अरे! आज के दौर में जन्म लेना था आप को। गोली दागना कुण्डली में तो लिखा ही था, सो आप अब दाग देते। धांय -धांय करते और शान से पकडे जाते। फिर कड़ी सुरक्षा वाली किसी जेल में जाते। वहाँ जाते और वहाँ से अदालत लाये जाते समय आप किसी महानायक की तरह ट्रीट किये जाते। कैमरे आपके पीछे यूं भागते मानो साक्षात् किसी युग पुरुष को आते हुए दिखा रहे हों। भाई लोग पिल पड़ते ये बताने में कि मंगल जी ने किस कलर की ड्रेस पहनी थी और उनकी बॉडी लैंग्वेज क्या कह रही थी। फिर आपको जमानत मिलती। इस के बाद आपका सामना उस नस्ल से होता जो पामेला बोर्डेस से लेकर सिल्क स्मिता जैसी महान विभूतियों के कृतित्व और व्यक्तित्व को सेलुलोइड पर उतारने के भक्ति भाव में लीन रहती है। ये नस्ल छोटे मोटे लोगों की नहीं है। बहुत बिजी रहते हैं वो। इतने बिजी कि गाँधी पर फिल्म बनाने के लिए समय नहीं निकाल सके और एटेनबरो को यह तुच्छ काम करना पडा। खैर, मैं विषय से भटक रहा हूँ। आप पर भी फिल्म बनती। आप को हालात का शिकार बताया जाता, उन तमाम घटनाक्रमों से आपकी बगावत को सही करार दिया जाता जो घटनाक्रम खुद आप ने न कभी देखे और न ही कभी सुने या भोगे होंगे। बैंडिट किंग टाइप की ये फिल्म तहलका मचाती। फिर आप किसी युग प्रवर्तक की तरह देखे जाते। आप की फ़िल्मी छवि ही आप का सच करार दे दी जाती। फिर क्या था, बरसों बाद यदि आपको सज़ा सुनायी भी जाती तो आपकी फिल्मों के भावपूर्ण संवाद, आपकी निरीह सी फ़िल्मी छवि इन सब के दम पर आपको महान पुण्यात्मा करार देकर आपको बचाने की मुहीम शुरू हो जाती। लोग यूं विधवा प्रलाप करते मानो आप नहीं बल्कि दोषी वो मूर्ख लोग हैं जो आपकी गोलियों से मर गए। उन मूर्खों के लिए कहा जाता कि उन्होंने आपकी शांतिपूर्ण मकसद से चली गोली की राह में आ कर खुदकुशी कर ली, और गलत तरीके से आप को ही हत्यारा कहा जा रहा है। यकीन मानिए ये सब होता और बहुत मुमकिन है कि आप बच जाते। जी क्या कहा? आप बचना नहीं बल्कि देश के लिए मर जाना चाहते थे? मंगल जी, यदि आप आज के दौर में होते तो यूं बच जाने के विकल्प को ही चुनते क्योंकि आपके सामने ये स्पष्ट हो गया होता कि देश के लिए मरना या किसी को मारना नादानों की "हरकत" होती है। आजादी तो केवल "बिना खडग और ढाल" वाले ही दिला सकते हैं। आप और आप जैसों ने तो स्वतंत्रता संग्राम में टाइम पास ही किया। आप हों या भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष चन्द्र बोस, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्लाह खान, खुदीराम बोस, चापेकर बंधू आदि आदि..........................................................कौन आपको याद रखता है। इस देश में आप सब से ज्यादा श्रद्धा और सम्मान तो शायद बेन किंग्सले को मिल रहे हैं।
जी क्या कहा? फिल्म तो आप पर इस युग में भी बनी है?कमाल करते हैं पाण्डेय जी..............! सच तो यह है कि वो फिल्म आज तक "मंगल पाण्डेय" की फिल्म का दर्ज़ा नहीं पा सकी है, हम तो उसे आज भी "आमीर खान की फिल्म" के रूप में ही जानते हैं। खैर, तो मैं कह रहा था कि ................................................................................................................................................................................
रत्नाकर त्रिपाठी

देव आनंद और विजय आनंद से क्षमा याचना सहित



मशहूर निर्माता तथा अदाकार देव आनंद और उनके भाई  विजय आनंद आज जीवित  होते तो अपनी कालजयी फिल्म "गाइड" का रीमेक ज़रूर बनाते। ऐसा करना भी चाहिए था, आखिर पुरानी सफल फिल्मों की ऐसी-तैसी करने के महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वहन बेचारे साजिद खान, फरहान अख्तर, रोहित शेट्टी ही कब तक करते रहेंगे। बहरहाल, देव साहेब और विजय उर्फ़ गोल्डी "गाइड रिटर्न्स" को पुरानी फिल्म से कुछ हट कर तैयार करते। फिल्म की शुरुआत में उनका हीरो जेल से नहीं बल्कि किसी नोट छापने और पाखंड से शोहरत पाने वाली फैक्ट्री से बाहर आता। इसकी वजह यह बताई जाती कि  फैक्ट्री से दो बच्चों की लाश की बदबू आ रही है, इसलिए अब वहाँ रहने का वो मज़ा नहीं रहा है। पुरानी फिल्म की ही तरह वो भी किसी गाँव में तो जाता लेकिन वहाँ मंदिर में नहीं रहता। वो तो सरपंच के घर को फैक्ट्री घोषित करता और ठाठ से वहीं रहने लगता। वो कमर दर्द ठीक करने वाला अवतार पुरुष माना जाता, कहा जाता कि  वो जिसे भी लात मारता है, उसका कमर दर्द ठीक हो जाता है। लिहाजा लोग उसके पास आते, श्रद्धा के साथ लात खाते और चुपचाप चले जाते। भले ही उन्हें कमर की दिक्कत हो या न हो। फिर उस इलाके में अकाल पड़ता (अकाल पड़ना स्वाभाविक है, क्योंकि कहा गया है ना कि  "जहाँ-जहाँ  पाँव .............बंटाधार") लोग मरने लगते, भूख और प्यास से हा-हा कार मच जाती। तब फिल्म का नायक लात मारने के अपने मूल कर्म को त्याग कर ट्रैक चेंज करता। पुरानी फिल्म का नायक तो मूर्ख था जो उपवास करने लग गया। आज की फिल्म का नायक गाँव में बनी  पानी की सूख चुकी टंकी पर चढ़ जाता। "गाँव वालों" की तर्ज़ पर लहराता। "अरे ओ साम्बा" की शैली में पूछता "होली कब है? कब है होली........?" गाँव की बसन्ती आश्चर्य करती, कहती "ये तो वोही मिसाल हुई कि प्यासा नहायेगा क्या, होली खेलेगा क्या?" मौसी जी कहतीं "हे राम! बापू के इस देश में अकाल पड़ा है और आप होली खेलने की आशा जगा रहे हो!"  तब हमारा नायक कहता " वो जो स्वर्ग में राज कर रहे हैं, बारिश का डिपार्टमेंट उन्हीं के पास तो है। अरे! उनका असली शिष्य तो मैं ही हूँ और अनुगामी भी। उन्होंने ऊपर स्वर्ग बनाया और मैंने नीचे स्वर्ग और उसकी कई ब्रान्चेस बनाईं। वो ऊपर वैभव से रहते हैं और बाकी देवताओं पर राज करते हैं, तो मैं भी नीचे मज़े करता हूँ और देवताओं पर राज करता हूँ। तभी तो लोग देवता को छोड़ मेरी पूजा करने लगे हैं।  अब जब हम इतने एक समान  हैं तो मेरे कहने से वो क्या बारिश नहीं करवाएंगे? घबराओ मत बारिश होगी, तब तक बचा-खुचा पानी भी ख़त्म कर दो, भूख-प्यास से बदहाल हो कर तब तक रोते रहो जब तक कि  तुम्हारे आंसू भी न सूख जाएँ। जब ऐसा हो जाए तो बता देना, मैं बारिश करवा दूंगा।"
यह कहते ही पूरा इलाका नायक की जय-जयकार से गूँज उठता। ऐसी श्रद्धा और विश्वास उपजता कि  ठाकुर भी अपने हाथ जोड़ कर नायक की आराधना में जुट जाता।  श्रद्धा में भावविभोर होकर वीरू का दोस्त जय माउथ ऑर्गन पर नायक की प्रशंसा में धुन बजाते हुए अपना लकी सिक्का उसके चरणों में अर्पित कर देता। धन्नो खुद बखुद नायक की सवारी बनने  के लिए चली आती। रामलाल तो  ठाकुर की तिजोरी की चाबी नायक को अर्पित कर देता। ठाकुर की बहू राधा लालटेन जलाना छोड़कर नायक की आरती का दिया प्रज्ज्वलित करने में मशगूल हो जाती। रहीम चाचा अचम्भे के मारे नायक को आँखे फाड़-फाड़ कर देखते रह जाते। लकड़ी की टाल  पर बैठा सूरमा भोपाली, जेल में चुगली लगाता हरिराम और चुगली सुनता अंग्रेजों के ज़माने का जेलर टीवी पर इसका लाइव टेलीकास्ट देखते और श्रद्धा में डूब जाते। अड्डे पर बैठा कालिया "कितने आदमी थे?" का जवाब तलाशने की बजाय "मोरा गोरा रंग लई  ले........" गाते हुए भक्ति भाव से भर जाता और गब्बर, वो बेचारा तो "जब तक है जान, हे महामना मैं नाचूँगा.........."  पर ठुमके लगाता हुआ नायक की नृत्य के जरिये अराधना करने लगता। फिर बारिश हो या न हो, क्या फर्क पड़ता है, आँख का पानी तो बचा है ना, बस उस ही से काम चलाते चलो, क्योंकि ये आँख का पानी ही इकलौती ऐसी चीज है जो तुम्हारे पास बची है और नायक के पास नाम मात्र की भी नहीं। उसे तुम्हारी इसी अमानत से डर है, तभी तो उसने कहा कि  ये पानी भी सुखाओ, तभी बारिश करवाऊँगा।  तो बोलो जय.................की 
रत्नाकर त्रिपाठी 

शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2013

तू दानिशमंद.............

एक कतरा जहर का तो मेरे नाम का  होगा
तू दानिशमंद  मेरे भी किसी काम का होगा 

किसी शब् के एक तंगदिल ख्वाब की तरह 
चंद  बूंदों सा ही चेहरा मेरे जाम का होगा 


जो कुछ बचा है उसकी नीलामी तो क्या करूं 
ज़मीर का इस दौर में भला दाम क्या होगा 

उस पूनम पर गिरता है जो चाँद से अमृत 
मेरी किस्मत नहीं, वो तो तेरे बाम का होगा 

तुम करते सियासत मगर ये सोच तो लेते 
किस क़दर ज़ख़्मी दिल मेरे राम का होगा 

रत्नाकर त्रिपाठी 

गुरुवार, फ़रवरी 21, 2013

नींद की तलाश में


जैसे ही शबाब पर आया अँधेरे का गाढ़ापन 
जागा हुआ कोई जिस्म काँप उठा 
तुरंत छिपाया तकिया 
अलमारी में क़ैद कर दिए कागज़ 
गद्दे के नीचे छिपा दिया चिकना कागज़ 
धो दिया पूरा चेहरा 
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वो शबाब था, सुबह के आने का निशान 
तकिया भीगा हुआ था आंसुओं से 
कागज़ में थे "किसी" को न भेजे ख़त 
चिकना कागज़ था, किसी "ख़ास" की तस्वीर 
पूरा चेहरा था, अश्कों की नमी में लिपटा 
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फिर, ओढ़ कर नाकामियों की चादर 
बना कर खामोश जज्बों का तकिया 
कील सी चुभने वाली यादों की सेज पर 
कोई लेट गया, नींद की तलाश में 



रत्नाकर त्रिपाठी