शुक्रवार, नवंबर 29, 2013

मुफस्सिल-ए-आशिक़ी चाहे गलत कह जाए
उसकी मासूमियत हरेक जुबां पे रह जाए
वो तो कच्ची मिट्टी के पैमाने सी रखे तासीर
अगरचे जाम तो भरे मगर प्यास भी रह जाए
अंदाज़-ए-बयां जो  दिलकश  नहीं तो गुरेज़ क्यूँ
ज़रूरी  तो नहीं के वो ही चुप का दर्द सह जाए
अबके बरसात खुले रखेंगे चश्म-ए -नम  हम
के उनमें निहा  समंदर भी चुपके से बह जाए
बुतों को भी पसंद है अहतराम, तो ऐसा करें
 साथ बैठें कि शायद वो भी कुछ कह जाए

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रत्नाकर त्रिपाठी







शनिवार, नवंबर 09, 2013

वो जो नींद से है भरे हुए, हैं वो ख्वाब से डरे हुए 
क़ुर्बां मैं तेरे मुफलिसी, मेरे ख्वाब भी हैं मरे हुए 

था अश्क़ का नमक घुला, तेरे गेसुओं की याद में
फिर पूछती हो क्यों भला , मेरे ज़ख्म क्यूँ हरे हुए

उन्हें शक़्ल थी ईमान की, जो तेरी नज़र को ना पा सके
वो लफ्ज़ जो तेरी बज़्म में, ज़िल्लत से थे भरे हुए


जो ना चाहा था वो हो गया, दरमियाने हंसी मैं रो गया
बेक़सूर दिल यही पूछता, ये करम थे किसके करे हुए

छोड़ दे साग़र मेरे, उन जाम का हिसाब तू
जो जाम तेरे एहतराम में थे खाली तो कभी भरे हुए