बुधवार, अक्तूबर 01, 2014








पतझड़ की हर पत्ती  को माथे पे बिठाया है
यूं बहार के एहतराम में सेहरा सजाया है
चंद  खत, कुछ तोहफे, शराब और एक मैं
आओ यादों, मैंने  दस्तरखान लगाया है
अक्स तेरे चेहरे का चुराया चाँद ने कैसे
इस सवाल ने मुझे हर शब  जगाया है
हक़ीक़त के संग पे ख्वाब ओढ़ के सो गए
उनके लिए तो अब हर ख़याल  पराया  है
वो तू ही तो है, वहाँ दूर, मेरे इंतज़ार में
इस सराब ने मुझे ता-उम्र सताया है
---------------------------------------------------
सराब - मृग मरीचिका
--------------------------------------------------
रत्नाकर त्रिपाठी

रविवार, अगस्त 31, 2014






ग़मे-ज़िंदगी को जब भी हिचकी आयी है
मेरे ही नाम की तब उसने दी दुहाई है
अब तनहाई में  खुल कर रो लेता हूँ
बस एक यही सुकूं  लाई तेरी जुदाई है

छिपाए रखनी हो आह तो सी लो लबों को
खुश दिखने की ये अदा तूने ही सिखाई है
खुशी के सफों पे बिखरी रही रोशनाई
हमने कुछ अजब किस्मत लिखाई है

ज़िंदा से खींचे हाथ और मरे को काँधा
मदद के नाम पे तमाशा करे खुदायी  है
---------------------------------------------------
रत्नाकर त्रिपाठी

मंगलवार, जून 24, 2014




ज़रा गौर से सुनो, ये   सन्नाटा कुछ कहेगा
मेरी सोहबत में आके चुप कैसे कोई रहेगा

कमाल का असर है कि  बुत  भी साथ हो तो
पत्थर को दिल पे रखके मेरा हाल वो सहेगा

सहरा में मैं गया तो यक़ीन मान लो तुम
दरिया-दरिया उसके हर ज़र्रे से बहेगा

तन्हाई भी कभी  मुझसे जो आ मिली तो
महफ़िल की ओर ही फिर उसका कदम बढ़ेगा

तारीफ खुद की ऐसी वाज़िब नहीं है लेकिन
मेरा ये सच ज़माना कई दौर तक कहेगा

बुधवार, जून 18, 2014


 
 
 
तारे भी उनके अश्कों से अपना चेहरा धोते हैं
वो जो डूब के इश्क में तमाम शब् को रोते हैं

आस का बस एक ही दाना, है उनकी उम्मीदों में
वो जो अपने हर आंसू में नाम  तेरा ही  बोते हैं

जिनके ख्वाबों की मंज़िल है तेरे आँचल का साया
अंगारों की सेज  पे भी वो पुर-सुकून हो  सोते हैं

ज़ख्मों को अपने जिनके नाम किया है लोगों ने
पूछ रहे हैं वो मुझसे, ये नश्तर कैसे होते हैं?

है ग़ज़ब वो तिश्नगी यारों के दरिया पे आ के भी
वो आंसूं-आंसू पीते हैं और फिर ज़ख्मों को धोते  हैं


रत्नाकर त्रिपाठी 

रविवार, जून 08, 2014

बहुत दिनों के बाद कुछ लिखा है


तपती दोपहरी में जब बदली कोई छायी  है
बा-रास्ते -हाफीजा एक ज़ुल्फ़ चली  आयी है

ग़ाफ़िल रही ख्वाबों में मुझ-सी  तमाम शब
इसी वजह आज सहर आँख मली  आयी है


खूं ओ अश्क़ से सींचा है मोहोब्बत का सेहरा
मुद्दतों में तब कहीं  आरज़ू की  कली आयी है

भुला  पीठ के ज़ख्म गले लगाना हरेक को
वफ़ा की ऐसी रीत  हमसे ही चली आयी है

कुछ यूं सुलग उठे वो तरदामनी  पे मेरी
आह उनकी  मुझ तक आज जली  आयी है
------------------------------------------------
रत्नाकर त्रिपाठी