शुक्रवार, मार्च 10, 2017

अपनी एक ताजा रचना सादर पेश कर रहा हूं-

खुद से बगावत का वक्त आने लगा है,
सख्त निशां जज्बात पे छाने लगा है।
हर बाज को कहने लगा हंू मैं फाख्ता
सू-ए-जमजम पैमाना भी जाने लगा है।
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तालीमघर दुनिया का, है कमाल का,
इंसां के काम का, न इंसां के हाल का।
तालिबे-इल्म हो गया, जब से इसका मैं
नासेह भी दुश्मन सा नजर आने लगा है।
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इक दिल भी था पहलू में, जाने कहां गया
कुछ संग-सा पीछे अपने छोड़ कर गया।
ना आब रहा और ना ही अश्क चश्म में
इंसानियत का सिर से नशा जाने लगा है।
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ना पूछ कितना तवील है नेकी का रास्ता
खाके-सफर से कभी ना हो पाया राब्ता।
चुनांचे हमने रुख जो किया कामयाबों का,
नजरों का सिरा तूर तक भी जाने लगा है।
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बेशक, मैं हूं कातिल अपने ईमान का,
माथे है मेरे खून मुकम्मल इंसान का।
दावरे-हश्र, लेकिन इसे भूल न जाएं,
के कायनात को मुझ से मजा आने लगा है।
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रत्नाकर त्रिपाठी




सोमवार, अगस्त 29, 2016

एक ...था... महेश भट्ट

'सारांशÓ फिल्म मैंने भोपाल के रंगमहल सिनेमाघर में देखी थी। गर्मी के दिन थे। एयरकंडीशनर की खामोश हवा की बजाय पंखों का घर्र-घर्र और पुराने हो चुके प्रोजेक्टर से घिसती हुई रील की खरखराहट के बीच फिल्म चल रही थी। अचानक परदे पर एक बुजुर्ग का तमतमाता चेहरा दिखा। फिर उसके मुंह से निकले धाराप्रवाह संवाद। एक ऐसा बुजुर्ग, जो अपने मरे बेटे की अस्थियां लेने के लिए लाल फीताशाही से जूझ रहा था। बुजुर्ग के रूप में अनुपम खेर की उस एंट्री, संवाद और इस सबसे बढ़कर, अभिनय ने ऐसा माहौल बनाया कि सारा हॉल खामोशी से भर गया। पंखे सहित रील का शोर अस्तित्व-विहीन जान पड़ा। फिर जब भ्रष्ट और पतित राजनीतिज्ञ के रूप में नीलू फुल दिखे, तो एक पल के लिए अनुपम खेर का जादू भी दिमाग से उतर-सा गया। भट्ट के निर्देशन ने दर्शकों को सम्मोहित कर दिया था। कुल मिलाकर फिल्म दिलो-दिमाग पर छा गई।
बाद में जब पता चला कि सारांश को उसकी रिलीज वाले वर्ष, 1984 में अकादमी अवार्ड (विदेशी भाषा की फिल्म हेतु) के लिए भारत की ओर से भेजा गया है, तो कोई हैरत नहीं हुई। जिन्हें 'सारांशÓ जैसी फिल्मों का शौक है, उनके लिए यह समाचार अप्रत्याशित नहीं था। हां, यह अप्रत्याशित था कि अकादमी अवार्ड में सराही जाने के बावजूद यह फिल्म पुरस्कार नहीं पा सकी। तब यही सोचकर दिल को बहला लिया गया कि 'सितारों के आगे जहां और भी है...Ó
तब दिल तो मान गया, लेकिन कालांतर में 'दिल है कि मानता नहींÓ के रूप में जो महेश भट्ट दिखे, उससे 'सारांशÓ वाले भट्ट को चाहने वालों का दिल पूरी तरह टूट गया। राज कपूर और नरगिस अभिनीत फिल्म 'चोरी-चोरीÓ की कहानी की यह चोरी भले ही सुपर हिट रही हो, लेकिन इसमें 'भट्ट फैक्टरÓ कहीं भी नहीं दिखा। जबकि 1984 से लेकर 'दिल है...Ó तक के बीच भट्ट ने 'जनमÓ 'काशÓ 'डैडीÓ और 'स्वयंÓ जैसी उत्कृष्ट फिल्में बनाई थीं। इन फिल्मों को लोगों ने तो सराहा, लेकिन वे बॉक्स ऑफिस मटेरियल नहीं बन सकीं। जबकि इसी अवधि में भट्ट द्वारा निर्देशित 'नामÓ 'आवारगीÓ 'जुर्मÓ 'आशिकीÓ और 'साथीÓ जैसी चालू बंबईया फिल्में धूम मचा चुकी थीं। यह 'चालूपनÓ भट्ट को कुछ ऐसा रास आया कि 'दिल है...Ó के बाद वह 'सड़कÓ लेकर आ गए। सार्थक सिनेमा से कोसों दूर रहने वाले दर्शकों को भी 'चालूÓ भट्ट रास आ गए। इस 'कम्पोटेंट मिक्स्चरÓ ने भविष्य में भट्ट के कैमरे से 'जुनूनÓ से लेकर 'दुश्मनÓ जैसी चतलाऊ श्रेणी की फिल्मों की झड़ी लगा दी। इस समय तक सारांश को बने चौदह साल हो चुके थे। करीब डेढ़ दशक पहले का महेश भट्ट कहीं जा छिपा था।
फिर भी महेश भट्ट के भीतर एक छटपटाहट तो थी ही। यही वजह थी कि 'दुश्मनÓ के पहले तक उन्होंने 'फिर तेरी कहानी याद आईÓ जैसी लीक से हटकर सफल फिल्म का भी निर्देशन किया। इसी भावना का परिचय सन 1999 में आई 'जख्मÓ के जरिए भट्ट ने दिया। जिन्होंने भी यह फिल्म देखी, उनके आगे सहसा 'सारांशÓ और उसके पहले वाली 'अर्थÓ के महेश भट्ट का चेहरा घूम गया।
हालांकि 'जख्मÓ में पुराने भट्ट केवल उसी तरह नजर आए थे, जिस तरह बरसों-बरस पहले गांव छोड़कर शहर की चकाचौंध में डूबने वाला कोई शख्स बरसों बाद अपने गांव लौटता है। केवल कुछ दिनों के लिए रुकता है और फिर शहर उसे अपनी ओर खींच लेता है। सार्थक फिल्म के चाहने वालों को 'जख्मÓ की सौगात देने के बाद भट्ट ने उन्हें फिर ढेर सारे जख्म दे डाले। ये जख्म 'मर्डरÓ 'जिस्मÓ 'राजÓ 'कलयुगÓ और 'गैंग्स्टरÓ जैसी अर्थ-विहीन और 'भट्ट फैक्टर-विहीनÓ फिल्मों के तौर पर मिले।
इन बातों से असहमत होते हुए तर्क दिया जा सकता है कि हम जिन्हें अर्थ-विहीन कह रहे हैं, उन फिल्मों ने खासा बिजनेस किया है। 'बिजनेसÓ के तथ्य से हम भी सहमत हैं, लेकिन यहां तो बात उस श्रेष्ठता की हो रही है, जो 'अर्थÓ 'सारांशÓ 'डैडीÓ 'स्वयंÓ और 'काशÓ में देखने मिली थी। जख्म के बाद पुराने महेश भट्ट अब तक फिर कहीं नजर नहीं आए हैं। जबकि आंखें उनकी तलाश कर रही हैं। पूरे अफसोस के साथ यह कहते हुए, 'एक था महेश भट्ट...Ó