अपनी एक ताजा रचना सादर पेश कर रहा हूं-
खुद से बगावत का वक्त आने लगा है,
सख्त निशां जज्बात पे छाने लगा है।
हर बाज को कहने लगा हंू मैं फाख्ता
सू-ए-जमजम पैमाना भी जाने लगा है।
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तालीमघर दुनिया का, है कमाल का,
इंसां के काम का, न इंसां के हाल का।
तालिबे-इल्म हो गया, जब से इसका मैं
नासेह भी दुश्मन सा नजर आने लगा है।
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इक दिल भी था पहलू में, जाने कहां गया
कुछ संग-सा पीछे अपने छोड़ कर गया।
ना आब रहा और ना ही अश्क चश्म में
इंसानियत का सिर से नशा जाने लगा है।
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ना पूछ कितना तवील है नेकी का रास्ता
खाके-सफर से कभी ना हो पाया राब्ता।
चुनांचे हमने रुख जो किया कामयाबों का,
नजरों का सिरा तूर तक भी जाने लगा है।
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बेशक, मैं हूं कातिल अपने ईमान का,
माथे है मेरे खून मुकम्मल इंसान का।
दावरे-हश्र, लेकिन इसे भूल न जाएं,
के कायनात को मुझ से मजा आने लगा है।
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रत्नाकर त्रिपाठी
खुद से बगावत का वक्त आने लगा है,
सख्त निशां जज्बात पे छाने लगा है।
हर बाज को कहने लगा हंू मैं फाख्ता
सू-ए-जमजम पैमाना भी जाने लगा है।
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तालीमघर दुनिया का, है कमाल का,
इंसां के काम का, न इंसां के हाल का।
तालिबे-इल्म हो गया, जब से इसका मैं
नासेह भी दुश्मन सा नजर आने लगा है।
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इक दिल भी था पहलू में, जाने कहां गया
कुछ संग-सा पीछे अपने छोड़ कर गया।
ना आब रहा और ना ही अश्क चश्म में
इंसानियत का सिर से नशा जाने लगा है।
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ना पूछ कितना तवील है नेकी का रास्ता
खाके-सफर से कभी ना हो पाया राब्ता।
चुनांचे हमने रुख जो किया कामयाबों का,
नजरों का सिरा तूर तक भी जाने लगा है।
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बेशक, मैं हूं कातिल अपने ईमान का,
माथे है मेरे खून मुकम्मल इंसान का।
दावरे-हश्र, लेकिन इसे भूल न जाएं,
के कायनात को मुझ से मजा आने लगा है।
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रत्नाकर त्रिपाठी