अपनी एक ताज़ा रचना सादर पेश कर रहा हूँ
कुछ तो ख़याल साये भी करते होंगे
किसी आरजू में वो भी यूं मरते होंगे
होगी तो सरगुज़श्त इक उनकी भी
जिसके हर्फ़-हर्फ़ आह ही भरते होंगे
जब भी गहराते हैं तीरगी के निशाँ
अपने वजूद को वो भी तो डरते होंगे
दीवार भी मिले है जब खामोश उन्हें
उनकी आंख के आंसू भी झरते होंगे
या खुदा दे ही देता सायों को भी जुबां
दुआ मन ही मन में वो करते होंगे
कुछ तो ख़याल साये भी करते होंगे
किसी आरजू में वो भी यूं मरते होंगे
होगी तो सरगुज़श्त इक उनकी भी
जिसके हर्फ़-हर्फ़ आह ही भरते होंगे
जब भी गहराते हैं तीरगी के निशाँ
अपने वजूद को वो भी तो डरते होंगे
दीवार भी मिले है जब खामोश उन्हें
उनकी आंख के आंसू भी झरते होंगे
या खुदा दे ही देता सायों को भी जुबां
दुआ मन ही मन में वो करते होंगे
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