मुफस्सिल-ए-आशिक़ी चाहे गलत कह जाए
उसकी मासूमियत हरेक जुबां पे रह जाए
ज़रूरी तो नहीं के वो ही चुप का दर्द सह जाए
अबके बरसात खुले रखेंगे चश्म-ए -नम हम
के उनमें निहा समंदर भी चुपके से बह जाए
बुतों को भी पसंद है अहतराम, तो ऐसा करें
साथ बैठें कि शायद वो भी कुछ कह जाए
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रत्नाकर त्रिपाठी
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