मेरी एक रचना
अपनी नज़र में तो इश्क का हरेक पल ख़ास है
किसी दास्ताने-इश्क से करे रश्क कोई क्यूं
जो था नसीब वाला तू उसी के पास है
मुसलसल रहेगा इधर वफाओं का सिलसिला
अगरचे उधर से सदाओं की न कोई आस है
हर लम्हा तिरा ज़िक्र ओ उस पे हजारों अश्क
फिर नहीं है बुझती, अजब सी ये प्यास है
ख्यालों की भी बज़्म कब की है उठ चुकी
फिर भी लगे है वहाँ किसी का तो वास है
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