अलग अंदाज़ में कुछ पेश करने की कोशिश कर रहा हूँ, कृपया गौर कीजिए
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मैं जानता हूँ कि, लब पे वो आ जाएँ
तो बेहद तकलीफ दे देती हैं
एक-एक लफ्ज़ और एक-एक आह
उनमें फंस कर तड़पते रहते हैं....
पता है मुझे कि, पाँव में वो आ जाएँ
तो हरेक क़दम रोक देती हैं
एक-एक होसला और एक-एक चाह
उनमें बिंथ कर घिसटते रहते हैं...
इल्म है मुझे कि, आवाज़ में वो आ जाएँ
तो सदाओं की मौत बन जाती हैं
एक-एक नाम, एक-एक याद
उनमें मिल कर बिलखते रहते हैं...
फिर भी जां
मैं सजा लूँगा उन्हें
अपने लब, पांव और आवाज़ पे
यहीं घर बसाएँ वो
हमारे रिश्ते में न आएं वो
क्योंकि मेरी जां
ये दरारें अज़ाब होती हैं
वाह! बेहतरीन रचना, हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
जवाब देंहटाएंsunder rachana
जवाब देंहटाएंbahut khoob......bahut umda rachna....meri blog tak pahuchne aur comment dene kay liye bahut bahut shukriya...........
जवाब देंहटाएंwah...aapki rachna man ko chhoo gayi
जवाब देंहटाएंसच कहा ... दरारें अज़ाब ही तो होती हैं जो ये जगह पा जाएँ तो रिश्ते दम तोड़ने लगते हैं
जवाब देंहटाएंसुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंग़ज़ल और क़ताअत के भाव बहुत ही खूबसूरत है...जो आपके चिंतन और मंथन का प्रमाण है...
जवाब देंहटाएंबधाई स्वीकार करें