रविवार, अगस्त 28, 2011

कहाँ चांद खो गया

तेरी छत पे टिका ख्वाब जब थक के सो गया
शब् भर रहा ये शोर कहाँ चांद खो गया

मुमकिन है मिल जाये फिर कब्र में क़ज़ा
जो लुत्फ़-ए-वस्ल उस से यादों में खो गया

आरजू के सहरा में जब-जब भी गिरे अश्क
चाह के बीज वहां कोई दीवाना बो गया

खिलवत में जब भी हुआ सुकून का अहेसास
तब कोई बेनिशां आया ओ मुझ पे रो गया

मौके तो इज़हार के थे कम नहीं मगर
हर दफा मैं जाने क्यूं बस बुत सा हो गया