रविवार, नवंबर 15, 2015

अपनी एक ग़ज़ल सादर पेश कर रहा हूँ
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है हिज़्र का तक़ाज़ा
तो, ऐसा करके देखें।
तुम आह गिन के देखो,
हम ज़ख्म गिन के देखें।
इस फासले को या रब,
समझेंगे  वो, अगरचे।
कोठी में रहने वाले,
कभी आ के घर में देखें।
बहेंगे अश्क़ ही या,
मातम भी साथ होगा?
जो जवाब चाहिए तो,
इक बार मर के देखें।
काँधे पे रखें सूरज,
मुट्ठी में हो समंदर।
चलें चाँद को बुलाने,
कभी ऐसा कर के देखें।
हूँ बुत -परस्त  तो क्या,
काफ़िर ही मैं भला हूँ।
फरिश्तों से हूँ बढ़ के,
कभी सज़दा कर के देखें।