सोमवार, अगस्त 30, 2010

फलक तक ले जाते हैं

वो जो अपने ख्वाबों की मंजिलों को पाते हैं
दुआओं में भला इतना दम कहाँ से लाते हैं

अपनी तो सदाएं दीवार से मिल मिट गईं
वो अपनी बात कैसे फलक तक ले जाते हैं

नाला सुन के मेरा तो संग भी रो पड़ता है
फिर कैसे पत्थर दिल मुझ पे मुस्कुराते हैं

दर्द के जिन टुकड़ों को सुलाता हूँ कागज़ पे
कैसे वो किसी के लब का गीत बन जाते हैं

जिन राहों से मेरा रकीब जा पहुंचा है तेरे दर
मेरे लिए उन राहों पे क्यों बिछते ये कांटे हैं

शुक्रवार, अगस्त 27, 2010

जिस गुलाब को फ़ेंक गए तुम

वो गरमी के आख़िरी दिनों की शाम
जब कहा था तुमने, ये आख़िरी मुलाक़ात है हमारी
और तड़प कर पकड़ लिया था मैंने हाथ तुम्हारा
मैंने कसमें दीं, वादे किये और भर आई थी मेरी आँख
लेकिन नहीं रुक सके तुम
कि शानदार ज़िंदगी इंतज़ार में थी तुम्हारे

उस शाम मेरे दिए जिस गुलाब को फ़ेंक गए तुम
उसके तब वहां बिखरे बीज
आज पौधा बन चुके हैं
उस शाम भरी मेरी आँख
अब खुल कर बहती है
और सींचती है उस गुलाब के पौधे को

उसके फूल मुझे याद दिलाते हैं हमारे साथ गुज़रे पलों की
और कांटे.........
आज भी उस शाम की गरमी सरीखे चुभते हैं

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

प्याले में तूफ़ान

देर रात चाय का प्याला देख कर किसी याद में डूब गया, और कुछ लिख दिया
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चाय के कतरों पे तेरी तस्वीर उतारी है
यूं प्याले में तूफान उठाने की तैयारी है

भाप देखूं तो आये है याद तेरी अंगडाई
और मिठास पे तेरी शख्सियत तारी है

ये भी थाम देती है आती हुई नींद के पाँव
और तेरा ज़िक्र ही मेरी नींदों पे भारी है

हर सुबह बरास्ते लब वो लाए है ताज़गी
तेरे-मेरे लबों में भी ऐसा ही कुछ जारी है

हरेक ऊफान पे उसका रंग चढ़ता जाता है
तेरी उम्र ओ हुस्न की भी ऐसी ही तो यारी है

मंगलवार, अगस्त 10, 2010

एक तेरे इशारे के

कुछ लिखा है
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मुसव्विर हाथ हो या हो कोई मुसाफिर कदम
मुन्तजिर हैं सभी बस इक तेरे इशारे के

खिले तेरी ज़ुल्फ़ की चमक या हो तेरी आवाज़
डूबती कश्ती को पता दे हैं ये किनारे के

हो कोई लिबास और हो कोई भी सिन्गार तेरा
खींच लाता है तेरे पास हरेक चौबारे से

तेरा वो लफ्ज़ कि चलो मिलते हैं फिर कभी
अहेसास देता है तकदीर के सहारे से

तू खुश रहे, महफिलों की रौनक कहलाये तू
हमें नहीं फुर्सत, यूं ग़मों के गुज़ारे से

काश! कि एक सी लिखी होती तकदीर हमारी
तो आंसू भी हमारे चमकते शरारे से


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मुसव्विर- चित्रकार, पेंटर
मुन्तजिर- ज़रूरतमद

गुरुवार, अगस्त 05, 2010

क्योंकि मेरी जां....

अलग अंदाज़ में कुछ पेश करने की कोशिश कर रहा हूँ, कृपया गौर कीजिए
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मैं जानता हूँ कि, लब पे वो आ जाएँ
तो बेहद तकलीफ दे देती हैं
एक-एक लफ्ज़ और एक-एक आह
उनमें फंस कर तड़पते रहते हैं....

पता है मुझे कि, पाँव में वो आ जाएँ
तो हरेक क़दम रोक देती हैं
एक-एक होसला और एक-एक चाह
उनमें बिंथ कर घिसटते रहते हैं...

इल्म है मुझे कि, आवाज़ में वो आ जाएँ
तो सदाओं की मौत बन जाती हैं
एक-एक नाम, एक-एक याद
उनमें मिल कर बिलखते रहते हैं...

फिर भी जां
मैं सजा लूँगा उन्हें
अपने लब, पांव और आवाज़ पे

यहीं घर बसाएँ वो
हमारे रिश्ते में न आएं वो

क्योंकि मेरी जां
ये दरारें अज़ाब होती हैं

मंगलवार, अगस्त 03, 2010

क्या कोई करे?

एक अरसे के बाद कुछ लिखा है





थम के लब पे रह गयी फिर कोई सदा
अल्लाह! इस बेबसी का क्या कोई करे?

तू हो के पास भी रखे सदियों के फासले
जानम! मेरी आरजू रहे कायम या मरे ?

हिचकियाँ न कर दे बदनाम कहीं तुझको
बेबसी! ये दिल क्यूं तेरी याद से है डरे?

उन की सुकूं की नींद पे जगराते मेरे निसार
सबा! फिर तेरा रुख क्यूं मेरी चाह से है परे ?

वो थे मेरे, मेरे हैं, मेरे ही उन को बनना है
हालात! फिर तू क्यूं मजाक ऐसा है करे ?

चाहने वालों सा झूठा नहीं नाम मेरा लेकिन
तकदीर! क्यूं मेरे लिए ऐसा ज़हर भरे है ?