रविवार, अगस्त 28, 2011

कहाँ चांद खो गया

तेरी छत पे टिका ख्वाब जब थक के सो गया
शब् भर रहा ये शोर कहाँ चांद खो गया

मुमकिन है मिल जाये फिर कब्र में क़ज़ा
जो लुत्फ़-ए-वस्ल उस से यादों में खो गया

आरजू के सहरा में जब-जब भी गिरे अश्क
चाह के बीज वहां कोई दीवाना बो गया

खिलवत में जब भी हुआ सुकून का अहेसास
तब कोई बेनिशां आया ओ मुझ पे रो गया

मौके तो इज़हार के थे कम नहीं मगर
हर दफा मैं जाने क्यूं बस बुत सा हो गया

मंगलवार, जुलाई 26, 2011

किस ने देखा है

इक आस का बहता पसीना किसने देखा है
इक अश्क में डूबा सफीना किसने देखा है

वस्ल के वो बरसों बरस तो याद हैं लेकिन
वो हिज्र का तनहा महीना किसने देखा है

दामन बचा गए सब तंगहाली से मेरी
दिल में छिपा इक दफीना किसने देखा है

बे-हिजाब दीदार हुआ जब रु ब रु तेरा
ता-उम्र फिर कोई नगीना किसने देखा है

दरअसल मुद्दा तो इक यकीं भर का है
फिर राम हो या हो रहीमा किसने देखा है

रविवार, जून 26, 2011

शहीदों के लिये

मित्रों बीती रात नेट पर सर्फिंग करते हुए अरुणाचल प्रदेश के दृश्य देखे...नाथुला दर्रा की इमेज देखते समय वहां लगे शहीद स्मारक की पंक्तियाँ पढ़ीं....उन में ऐसे भाव छिपा था कि रात भर सो नहीं सका वोही पंक्तियाँ आप से शेयर करना चाहता हूँ
' जब आप घर जायें
उन्हें हमारे बारे में ज़रूर कहना
आपके कल के लिये
हमने अपना आज दिया है '
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पता नहीं आप को ये पंक्ति पढ़ कर कैसा लगे..लेकिन इस ने मुझे तो भीतर तक झकझोर दिया है... हमारी खातिर देश की सरहद पर जान दे देने वाले शहीद धन्य हैं.......लेकिन शायद ही किसी को उनकी परवाह हो... सरहद पर खून जमा देने वाली सर्दी या झुलसा देने वाली रेगिस्तानी गर्मी के बीच दुश्मन की गोलियों और कुटिलता से जूझते सिपाही के क़र्ज़ से हम कभी भी मुक्त नहीं हो सकते हैं... ये बात और है कि किसी मशहूर क्रिकेटर की नसों में खिंचाव या किसी कवि ह्रदय पोलिटिशियन के घुटने का ओपरेशन हमें कई कई दिन तक के लिये परेशां कर जाता है और किसी फ़ौजी की शहादत की खबर से हमारे कान पर जूं तक नहीं रेंगती है....खैर इस देश के हर इक सिपाही के नाम श्रद्धा स्वरुप अपनी ये पंक्ति उन्हें समर्पित कर रहा हूँ
लिहाफ को ओढ़ के
लद्दाख के फ़ौजी की याद
भिगो देती है आँखें

सोमवार, जून 20, 2011

इक और पेशकश

पता नहीं ये क्यों लिखा है...किस मूड में लिखा है...बस इतना तय है कि लिखने से पहले जितनी बैचैनी थी...लिखने के बाद वोह और बढ़ गयी है


दिल जैसे कि गजाला कोई खेत में
चश्म जैसे कि चिराग कोई पानी में

लब जैसे कि आलिंगन कलियों का
दहन जैसे कि अप्सरा कहानी में

ज़ुल्फ़ जैसे कि वस्ले आब-ओ-घटा
चाल जैसे कि समंदर रवानी में

तसव्वुर जैसे कि इबादत करी जाये
बस यही कुछ तो हासिल है जवानी में

रविवार, जून 05, 2011

अश्क और दामन

यकलख्त यूं ही जब रवानी में आ जाएँ अश्क
समझ जाता हूँ कि तूने दामन कहीं लहराया है

रविवार, मई 29, 2011

इक और ख्याल

खौफ-ए-रुसवाई से दहलीज पे ठिठके हैं अश्क
जल्द आ ए सावन और सरापा भिगो दे मुझ को

गुरुवार, मई 26, 2011

कुछ यूं ही आया ख्याल

अशआर मेरे नमक की तासीर लिए हैं
प्यास का हो इंतज़ाम तो ही जुबां पे रखना

शुक्रवार, मई 06, 2011

इक और तुकबंदी

कहीं दुआ को उठे हाथ तो ज़ुल्फ़ कहीं बिखर गयी
कुछ यूं मिलते गए साये ओ ज़िंदगी गुज़र गयी


ज़िंदगी को मरकज़ का इक सुराग मिल ही गया
जब उतरती धूप तेरे बाम पर बिखर गयी

सिसके इस क़दर अरमान परदे की क़ैद में
जब आयी उसकी याद तो नकाब भी सिहर गयी

पा के मेरी मोहोब्बत आवारगी को जाने क्या हुआ
मेरा ही नाम पुकारे गयी, जहाँ गयी जिधर गयी

तेरे इनकार से कुछ ऐसे जुडी थी आरजू मेरी
तेरी हरेक ना पे मेरी आरजू और निखर गयी

गुरुवार, अप्रैल 21, 2011

तेरे नाम.........

तेरे नाम का इक फूल मंदिर में छोड़ आया हूँ
कुछ यूं गुनाहे-चाहत मालिक से जोड़ आया हूँ

तेरे नाम का इक आंसू सेहरा में छोड़ आया हूँ
कुछ यूं वहां हरियाली का आगाज़ जोड़ आया हूँ

तेरे नाम का इक शोला दरिया में छोड़ आया हूँ
कुछ यूं लहरों का नाता सरदी से तोड़ आया हूँ

तेरे नाम का इक संग आईने पे छोड़ आया हूँ
कुछ यूं दोनों खामोशों को जुम्बिश से जोड़ आया हूँ

तेरे नाम का इक ख़त बगीचे में छोड़ आया हूँ
कुछ यूं वहां बुलबुलों का पैगाम छोड़ आया हूँ

सोमवार, अप्रैल 04, 2011

भाई वीनस केशरी की प्रेरणा से


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उधर की आह यहाँ के अश्क से बयाँ होती है


ये तो तिज़ारते -इश्क है जो यूं ही जवां होती है



तू ना सोच के तेरे दर्द से बावस्ता नहीं हूँ मैं


तिरी हर शब् मेरी सिलवटो से बयाँ होती है



ये कोई खुदायी नहीं, चाह है इक उम्मीद की


जो हो जाती तो है पर मुक़म्मल कहाँ होती है



मुझसे सुनो यारों तन्हाई की ये दास्ताँ मिरी


जो साथ हो के भी मेरी हमसफ़र कहाँ होती है



वो जो कहलायें पयम्बर या कोई दरवेश


किसी ना किसी हिज्र पे उनकी भी जुबान सोती है

hotee hai

भाई वीनस केशरी की प्रेरणा से

उधर की आह यहाँ के इश्क से बयाँ होती है
ये तो तिज़राते-इश्क है जो यूं ही जवां होती है

तू ना सोच के तेरे दर्द से बावस्ता नहीं हूँ मैं
तिरी हर शब् मेरी सिलवटो से बयाँ होती है

ये कोई खुदायी नहीं, चाह है इक उम्मीद की
जो हो जाती तो है पर मुक़म्मल कहाँ होती है

मुझसे सुनो यारों तन्हाई की ये दास्ताँ मिरी
जो साथ हो के भी मेरी हमसफ़र कहाँ होती है

वो जो कहलायें पयम्बर या कोई दरवेश
किसी ना किसी हिज्र पर उनकी भी जुबां सोती है