जानम, तेरा एहेसास मेरी तमाम है दौलत
बस दर्द दे दे अपने, मुझे अमीर होना है
हर शब् तू सो पाए , हो दुनिया से बेखबर
तेरी सुकूं की नींद तो मेरा बिछोना है
फ़क़त सोचता हूँ ये, करूँ कैसे हदें पार
सेहरा में भी कैसे मुझे बीज बोना है
तेरे तसव्वुर के नाम है हरेक शब्, लेकिन
मै जानूं तुझे कहीं, मुझे कहीं और होना है
तेरा एक-एक अश्क न मैं खुल के पी सका
साथ इसी हकीकत, तमाम उम्र का रोना है
गुरुवार, जुलाई 22, 2010
सोमवार, जुलाई 19, 2010
चाहत में लिखा है रत्नाकर ने
मौजे- समंदर और मैं हमसफ़र तो हैं
दोनों ही की तो दौलत नमकीन पानी है
तू जब भी मिलेगी , हम इस्तेकबाल करेंगे
ये उम्र का आना और जाना तो फानी है
खारिज यूं न कर, तू कैस ओ फरहाद को
मुझे ही तो ज़माने को ये दास्तां सुनानी है
तेरे साथ जो जोड़ ली है आरजू एक मेरी
यकीन मान वो मेरी चाह, फ़क़त रूमानी है
एक-एक तेरा तसव्वुर, हरेक मय का कतरा
जा नहीं सकती है ये ये आदत पुरानी है
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अर्थ
मौजे-समंदर---------समुद्र की लहर
दौलत नमकीन पानी- समुद्र का पानी और आंसू, दोनों नमकीन हो कर हमारे दर्द को बाँट लेंगे
इस्तेक़बाल- स्वागत
कैज ओ फरहाद- मजनू और फरहाद
दोनों ही की तो दौलत नमकीन पानी है
तू जब भी मिलेगी , हम इस्तेकबाल करेंगे
ये उम्र का आना और जाना तो फानी है
खारिज यूं न कर, तू कैस ओ फरहाद को
मुझे ही तो ज़माने को ये दास्तां सुनानी है
तेरे साथ जो जोड़ ली है आरजू एक मेरी
यकीन मान वो मेरी चाह, फ़क़त रूमानी है
एक-एक तेरा तसव्वुर, हरेक मय का कतरा
जा नहीं सकती है ये ये आदत पुरानी है
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अर्थ
मौजे-समंदर---------समुद्र की लहर
दौलत नमकीन पानी- समुद्र का पानी और आंसू, दोनों नमकीन हो कर हमारे दर्द को बाँट लेंगे
इस्तेक़बाल- स्वागत
कैज ओ फरहाद- मजनू और फरहाद
रविवार, जुलाई 18, 2010
सूखी आँखें
अपनी एक रचना सादर पेश कर रहा हूँ
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सूखी ये आँखें चुपके से होने लगी हैं नम
यकीनन तेरे मुकाम पे सावन की धूम है
दर्दे-दिल देने लगा है मलहम सा मज़ा
शायद मेरा रकीब अब पुरसुकून है
सींचता हूँ ज़ख्म आंसुओं से आजकल
फिलवक्त इसी सूरत मिलता सुकून है
तेरी हरेक खुशी पर है ज़िंदगी निसार
तेरे लिए ही पाया इन रगों ने खून है
या तो दिखे तू या छिन जाएँ मेरी आँखें
चाहत का मेरी फ़क़त इतना जुनून है
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अर्थ
रकीब- दुश्मन
फिलवक्त- अभी हाल में
फ़क़त- महज़
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सूखी ये आँखें चुपके से होने लगी हैं नम
यकीनन तेरे मुकाम पे सावन की धूम है
दर्दे-दिल देने लगा है मलहम सा मज़ा
शायद मेरा रकीब अब पुरसुकून है
सींचता हूँ ज़ख्म आंसुओं से आजकल
फिलवक्त इसी सूरत मिलता सुकून है
तेरी हरेक खुशी पर है ज़िंदगी निसार
तेरे लिए ही पाया इन रगों ने खून है
या तो दिखे तू या छिन जाएँ मेरी आँखें
चाहत का मेरी फ़क़त इतना जुनून है
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अर्थ
रकीब- दुश्मन
फिलवक्त- अभी हाल में
फ़क़त- महज़
गुरुवार, जुलाई 15, 2010
अश्क बने जाते हैं
अपनी एक रचना सादर पेश कर रहा हूँ
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कितनी है पुर-असर, कोई अजानी सदा
पाँव जिस्म छोड़ उसकी ओर चले जाते हैं
किसी बज़्म में अब है मेरा इंतज़ार क्यूं
किसी चश्म के हम क्यूं अश्क बने जाते हैं
बाद बेदखली के तेरे दिल से हाल है अपना
खंडहर सदाएं दें, हम जिस भी ओर जाते हैं
बददुआ में सही, कहीं ज़िक्र मेरा आया है
आख़िरी हिचकी में हम मुस्कुराये जाते हैं
इम्तेयाज़ नहीं तेरे सितम, मेरी ज़ब्त में
तू हमपे, ओ हम तुझपे मुस्कुराये जाते हैं
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अर्थ
पुर-असर- असर या इफेक्ट रखने वाली
अजानी- अनजानी या अजनबी
बज़्म- महफ़िल
चश्म- आँख
बेदखली- तेरे दिल से बाहर हो जाना (इन पंक्तियों का अर्थ है )
सदाएं- बुलाना, आवाज़ देना
इम्तियाज़- फर्क, अंतर
ओ हम तुझ पे- और हम तुझ पर
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कितनी है पुर-असर, कोई अजानी सदा
पाँव जिस्म छोड़ उसकी ओर चले जाते हैं
किसी बज़्म में अब है मेरा इंतज़ार क्यूं
किसी चश्म के हम क्यूं अश्क बने जाते हैं
बाद बेदखली के तेरे दिल से हाल है अपना
खंडहर सदाएं दें, हम जिस भी ओर जाते हैं
बददुआ में सही, कहीं ज़िक्र मेरा आया है
आख़िरी हिचकी में हम मुस्कुराये जाते हैं
इम्तेयाज़ नहीं तेरे सितम, मेरी ज़ब्त में
तू हमपे, ओ हम तुझपे मुस्कुराये जाते हैं
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अर्थ
पुर-असर- असर या इफेक्ट रखने वाली
अजानी- अनजानी या अजनबी
बज़्म- महफ़िल
चश्म- आँख
बेदखली- तेरे दिल से बाहर हो जाना (इन पंक्तियों का अर्थ है )
सदाएं- बुलाना, आवाज़ देना
इम्तियाज़- फर्क, अंतर
ओ हम तुझ पे- और हम तुझ पर
मंगलवार, जुलाई 06, 2010
रक्स जारी है
बस अभी कुछ दिमाग में आया, वोह लिख दिया, आप गौर करेंगे तो मुझे सुकून मिलेगा, शुक्रिया
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सूरज, चाँद, फलक और न तारों को ही पा सकी
लेकिन दीवानी अर्ज़ का सदियों से रक्स जारी है
मेरे दामन को छू गया था तेरे अश्क का जो कतरा
इस कायनात के तमाम सावनों पे वो भारी है
शब् भर वुजू कर चुके गुलाब का ज़िक्र आसां नहीं
मिरी कलम ओ जुबां पे भी तो ओस अभी तारी है
क्यूं आ रहे हैं याद मुसलसल गुनाहे-इश्क हमें
तेरे दीदार से पहले ही क्या महशर की बारी है?
एक ओर है शेख साहेब की पांच वक़्त की बंदगी
एक ओर हमारी उम्र जो तेरी याद में गुजारी है
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अर्थ-
फलक- आसमान
अर्ज़- धरती, पृथ्वी
रक्स- नाच (इस लिए कि पृथ्वी लगातार घूमती है )
कायनात- सृष्टि, दुनिया
मिरी कलम ओ जुबां- मेरी कलम और जुबान
मुसलसल- लगातार
महशर- वो जगह जहां मरने के बाद ऊपर वाले को अपने हर पाप का हिसाब देना होता है
पांच वक़्त की बंदगी- पांच वक़्त की नमाज़
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सूरज, चाँद, फलक और न तारों को ही पा सकी
लेकिन दीवानी अर्ज़ का सदियों से रक्स जारी है
मेरे दामन को छू गया था तेरे अश्क का जो कतरा
इस कायनात के तमाम सावनों पे वो भारी है
शब् भर वुजू कर चुके गुलाब का ज़िक्र आसां नहीं
मिरी कलम ओ जुबां पे भी तो ओस अभी तारी है
क्यूं आ रहे हैं याद मुसलसल गुनाहे-इश्क हमें
तेरे दीदार से पहले ही क्या महशर की बारी है?
एक ओर है शेख साहेब की पांच वक़्त की बंदगी
एक ओर हमारी उम्र जो तेरी याद में गुजारी है
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अर्थ-
फलक- आसमान
अर्ज़- धरती, पृथ्वी
रक्स- नाच (इस लिए कि पृथ्वी लगातार घूमती है )
कायनात- सृष्टि, दुनिया
मिरी कलम ओ जुबां- मेरी कलम और जुबान
मुसलसल- लगातार
महशर- वो जगह जहां मरने के बाद ऊपर वाले को अपने हर पाप का हिसाब देना होता है
पांच वक़्त की बंदगी- पांच वक़्त की नमाज़
सोमवार, जुलाई 05, 2010
तन्हाई में रोया है
नन्ही सी बूँदें खिलखिलाना भूल गईं हैं
ज़रूर आज मेरा कोई तन्हाई में रोया है
अल्लाह, क्या इसी का है नाम मजबूरी
जो उसे सहारा देने का हक हमने खोया है
आरजू है अपना बना लूं उसका हरेक दर्द
ये मुराद रख के हर रात दिल ये सोया है
मेरी जां तू जान है मेरी, हरेक धड़कन की
दिल की ज़मीं पे ये खयाल आरजू ने बोया है
तेरे इंतज़ार में यूं जी रहे हैं मौत सी ज़िंदगी
जूं हरेक ज़ख्म मेरे ही खूं ने ही धोया है
बस एक बार आ, ओ एक-दूजे के हो जाएँ हम
तसव्वुर इस गरीब ने बस तेरे लिए संजोया है
ज़रूर आज मेरा कोई तन्हाई में रोया है
अल्लाह, क्या इसी का है नाम मजबूरी
जो उसे सहारा देने का हक हमने खोया है
आरजू है अपना बना लूं उसका हरेक दर्द
ये मुराद रख के हर रात दिल ये सोया है
मेरी जां तू जान है मेरी, हरेक धड़कन की
दिल की ज़मीं पे ये खयाल आरजू ने बोया है
तेरे इंतज़ार में यूं जी रहे हैं मौत सी ज़िंदगी
जूं हरेक ज़ख्म मेरे ही खूं ने ही धोया है
बस एक बार आ, ओ एक-दूजे के हो जाएँ हम
तसव्वुर इस गरीब ने बस तेरे लिए संजोया है
शुक्रवार, जुलाई 02, 2010
मुन्तजिर तो थे
मुन्तजिर तो थे
अपनी एक रचना आप की आप सभी की नज़ारे-इनायत की खातिर पेश कर रहा हूँ.हम वक़्त के चलन से यूं बेखबर न थे
लेकिन तेरे वादे के मुन्तजिर तो थे
क्यूं फेर ली निगाह मेरा हाल देख के
जलवे मेरे यूं तो कभी बेअसर न थे
अपना दिल-ओ-जां भी कर दिया निसार
पता चला कि वो भी पुरअसर न थे
तेरे इश्क में बन गए तमाम लोग मगर
हम से मिट जाएँ वो दिल-जिगर न थे
गमे-रोज़गार ने था मसरूफ कर दिया
अगरचे तेरे बुलावे से बेखबर न थे
तू हँस ले, कह के दास्ताँ मेरे अंजाम की
हम भी इस अंजाम से बाखबर न थे
जां, रहा हूँ शराबी, मुद्दतों का मैं लेकिन
किसी भी शराब में तुझसे असर न थे
न कर इन्तेजाम मुझ से दूरी का ऐ जां
तेरी इस अदा के हम मुन्तजिर न थे
अर्थ
मुन्तजिर- इच्छुक, ख्वाहिशमंद
पुरअसर न थे- जिनका कोई असर न हो
गमे-रोज़गार- नौकरी की चिंता
मसरूफ- व्यस्त
अगरचे- वैसे तो
जां - जिसे प्यार किया है
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