बुधवार, अक्तूबर 01, 2014








पतझड़ की हर पत्ती  को माथे पे बिठाया है
यूं बहार के एहतराम में सेहरा सजाया है
चंद  खत, कुछ तोहफे, शराब और एक मैं
आओ यादों, मैंने  दस्तरखान लगाया है
अक्स तेरे चेहरे का चुराया चाँद ने कैसे
इस सवाल ने मुझे हर शब  जगाया है
हक़ीक़त के संग पे ख्वाब ओढ़ के सो गए
उनके लिए तो अब हर ख़याल  पराया  है
वो तू ही तो है, वहाँ दूर, मेरे इंतज़ार में
इस सराब ने मुझे ता-उम्र सताया है
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सराब - मृग मरीचिका
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रत्नाकर त्रिपाठी