बुधवार, सितंबर 22, 2010

नहीं चाहिए अयोध्या पे फैसला

ज़रा सोचो
क्या एक अदालत करेगी तय
कि कहाँ हैं भगवान, कहाँ हैं अल्लाह?

क्या धर्म के ठेकेदार करवाएंगे तय
कि कहाँ होगी पूजा और कहाँ हो नमाज़

क्या चंद सिरफिरे करेंगे तय
कि समाज में अमन रहेगा या नहीं

ये हम तय कर चुके हैं कि
हमारे दिल में हैं भगवान और अल्लाह
कि जहाँ श्रद्धा और अकीदत से झुकेंगे सिर
वोहीं हो जाएगी पूजा और नमाज़
कि समाज में अमन ही होगा, सिरफिरे नहीं

रविवार, सितंबर 19, 2010

मालिक ये कुफ्र..........


मालिक
ये कुफ्र मुझसे कैसा हो गया
नाम ले के तेरा किसी और में खो गया

झुका था तो सजदे में मैं तेरे ही फ़क़त
अंदाज़ जाने क्यूं आशिकाना हो गया

वुजू तक ही तो था आब और मेरा साथ
एक याद का बादल मुझे सरापा धो गया

नासेह को तो डूब के ही सुन रहा था मैं
कोई दामन याद आया और मैं सो गया

बाम पे तो मैं बस तलाश रहा था चाँद
दिखा कोई और वहम ईद का हो गया

यूं बेशुमार दर्द मेरी दास्ताँ में छिपा था
जब बुत को सुनाया तो वो भी रो गया


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अर्थ
कुफ्र ------ नाशुक्री, खुदा को ना मानना
आब---- पानी
सरापा---- सिर से पांव तक
नासेह---- उपदेशक
बाम--- छत

गुरुवार, सितंबर 16, 2010

फिर भी....

हे परमात्मा
सामर्थ्य विहीन हूँ मैं
फिर भी

तूने दिया है शरीर को जो त्वचा का लिबास
और टांक दिए हैं उस पर रोएँ बेशुमार
साथ ही यहाँ वहां भर दिया है
स्वेद, लहू और आंसुओं का द्रव्य

उस त्वचा का बना के दीया
रोएँ ढाल कर बाती की शक्ल में
द्रव्य के तेल में भिगो दूं उनको
और मन को झुलसाते सवालों की आग से ले उधार
प्रज्ज्वलित कर दूं इस दीये को

ताकि
वो मिटा सके किसी के जीवन का अंधकार
फैला सके बुझे एक दिल में उजियारा
हटा सके किसी का तन्हाई का डर
दिखाए उसे आने वाले पल की रोशनी

बस इतनी क्षमता दे दो मुझे

हे परमात्मा
सामर्थ्य विहीन हूँ मैं
फिर भी.................

गुरुवार, सितंबर 09, 2010

मुक़म्मिल होने को है

हालात की सुई से आंसुओं के रेशे पिरो चुका हूँ
यूं यादों की चादर अब मुक़म्मिल होने को है

आंसुओं की नमी में घोल दिए हैं तमाम ख्वाब
यूं अपनी हरेक शब् अब तनहा होने को है

लिपट के अँधेरे से मिटा दिया है अपने साये को
यूं तुझसे मेरा फासला अब कम होने को है

दुनिया उक़बा दैरो-हरम सारे नज़र से उतर गए
यूं अब पाक इबादत की इब्तिदा होने को है

हम तो बाम से फ़क़त तुझे देख खुश हो लिए हैं
यूं अब मेरी ईद मुबारक की सहर होने को है

सोमवार, अगस्त 30, 2010

फलक तक ले जाते हैं

वो जो अपने ख्वाबों की मंजिलों को पाते हैं
दुआओं में भला इतना दम कहाँ से लाते हैं

अपनी तो सदाएं दीवार से मिल मिट गईं
वो अपनी बात कैसे फलक तक ले जाते हैं

नाला सुन के मेरा तो संग भी रो पड़ता है
फिर कैसे पत्थर दिल मुझ पे मुस्कुराते हैं

दर्द के जिन टुकड़ों को सुलाता हूँ कागज़ पे
कैसे वो किसी के लब का गीत बन जाते हैं

जिन राहों से मेरा रकीब जा पहुंचा है तेरे दर
मेरे लिए उन राहों पे क्यों बिछते ये कांटे हैं

शुक्रवार, अगस्त 27, 2010

जिस गुलाब को फ़ेंक गए तुम

वो गरमी के आख़िरी दिनों की शाम
जब कहा था तुमने, ये आख़िरी मुलाक़ात है हमारी
और तड़प कर पकड़ लिया था मैंने हाथ तुम्हारा
मैंने कसमें दीं, वादे किये और भर आई थी मेरी आँख
लेकिन नहीं रुक सके तुम
कि शानदार ज़िंदगी इंतज़ार में थी तुम्हारे

उस शाम मेरे दिए जिस गुलाब को फ़ेंक गए तुम
उसके तब वहां बिखरे बीज
आज पौधा बन चुके हैं
उस शाम भरी मेरी आँख
अब खुल कर बहती है
और सींचती है उस गुलाब के पौधे को

उसके फूल मुझे याद दिलाते हैं हमारे साथ गुज़रे पलों की
और कांटे.........
आज भी उस शाम की गरमी सरीखे चुभते हैं

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

प्याले में तूफ़ान

देर रात चाय का प्याला देख कर किसी याद में डूब गया, और कुछ लिख दिया
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चाय के कतरों पे तेरी तस्वीर उतारी है
यूं प्याले में तूफान उठाने की तैयारी है

भाप देखूं तो आये है याद तेरी अंगडाई
और मिठास पे तेरी शख्सियत तारी है

ये भी थाम देती है आती हुई नींद के पाँव
और तेरा ज़िक्र ही मेरी नींदों पे भारी है

हर सुबह बरास्ते लब वो लाए है ताज़गी
तेरे-मेरे लबों में भी ऐसा ही कुछ जारी है

हरेक ऊफान पे उसका रंग चढ़ता जाता है
तेरी उम्र ओ हुस्न की भी ऐसी ही तो यारी है

मंगलवार, अगस्त 10, 2010

एक तेरे इशारे के

कुछ लिखा है
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मुसव्विर हाथ हो या हो कोई मुसाफिर कदम
मुन्तजिर हैं सभी बस इक तेरे इशारे के

खिले तेरी ज़ुल्फ़ की चमक या हो तेरी आवाज़
डूबती कश्ती को पता दे हैं ये किनारे के

हो कोई लिबास और हो कोई भी सिन्गार तेरा
खींच लाता है तेरे पास हरेक चौबारे से

तेरा वो लफ्ज़ कि चलो मिलते हैं फिर कभी
अहेसास देता है तकदीर के सहारे से

तू खुश रहे, महफिलों की रौनक कहलाये तू
हमें नहीं फुर्सत, यूं ग़मों के गुज़ारे से

काश! कि एक सी लिखी होती तकदीर हमारी
तो आंसू भी हमारे चमकते शरारे से


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मुसव्विर- चित्रकार, पेंटर
मुन्तजिर- ज़रूरतमद

गुरुवार, अगस्त 05, 2010

क्योंकि मेरी जां....

अलग अंदाज़ में कुछ पेश करने की कोशिश कर रहा हूँ, कृपया गौर कीजिए
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मैं जानता हूँ कि, लब पे वो आ जाएँ
तो बेहद तकलीफ दे देती हैं
एक-एक लफ्ज़ और एक-एक आह
उनमें फंस कर तड़पते रहते हैं....

पता है मुझे कि, पाँव में वो आ जाएँ
तो हरेक क़दम रोक देती हैं
एक-एक होसला और एक-एक चाह
उनमें बिंथ कर घिसटते रहते हैं...

इल्म है मुझे कि, आवाज़ में वो आ जाएँ
तो सदाओं की मौत बन जाती हैं
एक-एक नाम, एक-एक याद
उनमें मिल कर बिलखते रहते हैं...

फिर भी जां
मैं सजा लूँगा उन्हें
अपने लब, पांव और आवाज़ पे

यहीं घर बसाएँ वो
हमारे रिश्ते में न आएं वो

क्योंकि मेरी जां
ये दरारें अज़ाब होती हैं

मंगलवार, अगस्त 03, 2010

क्या कोई करे?

एक अरसे के बाद कुछ लिखा है





थम के लब पे रह गयी फिर कोई सदा
अल्लाह! इस बेबसी का क्या कोई करे?

तू हो के पास भी रखे सदियों के फासले
जानम! मेरी आरजू रहे कायम या मरे ?

हिचकियाँ न कर दे बदनाम कहीं तुझको
बेबसी! ये दिल क्यूं तेरी याद से है डरे?

उन की सुकूं की नींद पे जगराते मेरे निसार
सबा! फिर तेरा रुख क्यूं मेरी चाह से है परे ?

वो थे मेरे, मेरे हैं, मेरे ही उन को बनना है
हालात! फिर तू क्यूं मजाक ऐसा है करे ?

चाहने वालों सा झूठा नहीं नाम मेरा लेकिन
तकदीर! क्यूं मेरे लिए ऐसा ज़हर भरे है ?

गुरुवार, जुलाई 22, 2010

आरजू है कि

जानम, तेरा एहेसास मेरी तमाम है दौलत
बस दर्द दे दे अपने, मुझे अमीर होना है

हर शब् तू सो पाए , हो दुनिया से बेखबर
तेरी सुकूं की नींद तो मेरा बिछोना है

फ़क़त सोचता हूँ ये, करूँ कैसे हदें पार
सेहरा में भी कैसे मुझे बीज बोना है


तेरे तसव्वुर के नाम है हरेक शब्, लेकिन
मै जानूं तुझे कहीं, मुझे कहीं और होना है


तेरा एक-एक अश्क न मैं खुल के पी सका
साथ इसी हकीकत, तमाम उम्र का रोना है

बुधवार, जुलाई 21, 2010

साथ होने का तेरे, खुद से किया था वादा
कोई ये तो बता दे, हालात का मै क्या करूँ

सोमवार, जुलाई 19, 2010

चाहत में लिखा है रत्नाकर ने

मौजे- समंदर और मैं हमसफ़र तो हैं
दोनों ही की तो दौलत नमकीन पानी है

तू जब भी मिलेगी , हम इस्तेकबाल करेंगे
ये उम्र का आना और जाना तो फानी है

खारिज यूं न कर, तू कैस ओ फरहाद को
मुझे ही तो ज़माने को ये दास्तां सुनानी है

तेरे साथ जो जोड़ ली है आरजू एक मेरी
यकीन मान वो मेरी चाह, फ़क़त रूमानी है


एक-एक तेरा तसव्वुर, हरेक मय का कतरा
जा नहीं सकती है ये ये आदत पुरानी है

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अर्थ
मौजे-समंदर---------समुद्र की लहर

दौलत नमकीन पानी- समुद्र का पानी और आंसू, दोनों नमकीन हो कर हमारे दर्द को बाँट लेंगे

इस्तेक़बाल- स्वागत

कैज ओ फरहाद- मजनू और फरहाद


रविवार, जुलाई 18, 2010

सूखी आँखें

अपनी एक रचना सादर पेश कर रहा हूँ
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सूखी ये आँखें चुपके से होने लगी हैं नम
यकीनन तेरे मुकाम पे सावन की धूम है

दर्दे-दिल देने लगा है मलहम सा मज़ा
शायद मेरा रकीब अब पुरसुकून है

सींचता हूँ ज़ख्म आंसुओं से आजकल
फिलवक्त इसी सूरत मिलता सुकून है

तेरी हरेक खुशी पर है ज़िंदगी निसार
तेरे लिए ही पाया इन रगों ने खून है

या तो दिखे तू या छिन जाएँ मेरी आँखें
चाहत का मेरी फ़क़त इतना जुनून है

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अर्थ
रकीब- दुश्मन
फिलवक्त- अभी हाल में
फ़क़त- महज़

गुरुवार, जुलाई 15, 2010

अश्क बने जाते हैं

अपनी एक रचना सादर पेश कर रहा हूँ
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कितनी है पुर-असर, कोई अजानी सदा
पाँव जिस्म छोड़ उसकी ओर चले जाते हैं

किसी बज़्म में अब है मेरा इंतज़ार क्यूं
किसी चश्म के हम क्यूं अश्क बने जाते हैं

बाद बेदखली के तेरे दिल से हाल है अपना
खंडहर सदाएं दें, हम जिस भी ओर जाते हैं

बददुआ में सही, कहीं ज़िक्र मेरा आया है
आख़िरी हिचकी में हम मुस्कुराये जाते हैं

इम्तेयाज़ नहीं तेरे सितम, मेरी ज़ब्त में
तू हमपे, ओ हम तुझपे मुस्कुराये जाते हैं

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अर्थ
पुर-असर- असर या इफेक्ट रखने वाली
अजानी- अनजानी या अजनबी
बज़्म- महफ़िल
चश्म- आँख

बेदखली- तेरे दिल से बाहर हो जाना (इन पंक्तियों का अर्थ है )
सदाएं- बुलाना, आवाज़ देना
इम्तियाज़- फर्क, अंतर
ओ हम तुझ पे- और हम तुझ पर

मंगलवार, जुलाई 06, 2010

रक्स जारी है

बस अभी कुछ दिमाग में आया, वोह लिख दिया, आप गौर करेंगे तो मुझे सुकून मिलेगा, शुक्रिया
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सूरज
, चाँद, फलक और न तारों को ही पा सकी
लेकिन दीवानी अर्ज़ का सदियों से रक्स जारी है

मेरे दामन को छू गया था तेरे अश्क का जो कतरा
इस कायनात के तमाम सावनों पे वो भारी है

शब् भर वुजू कर चुके गुलाब का ज़िक्र आसां नहीं
मिरी कलम ओ जुबां पे भी तो ओस अभी तारी है

क्यूं आ रहे हैं याद मुसलसल गुनाहे-इश्क हमें
तेरे दीदार से पहले ही क्या महशर की बारी है?

एक ओर है शेख साहेब की पांच वक़्त की बंदगी
एक ओर हमारी उम्र जो तेरी याद में गुजारी है
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अर्थ-
फलक- आसमान
अर्ज़- धरती, पृथ्वी
रक्स- नाच (इस लिए कि पृथ्वी लगातार घूमती है )
कायनात- सृष्टि, दुनिया
मिरी कलम ओ जुबां- मेरी कलम और जुबान
मुसलसल- लगातार
महशर- वो जगह जहां मरने के बाद ऊपर वाले को अपने हर पाप का हिसाब देना होता है
पांच वक़्त की बंदगी- पांच वक़्त की नमाज़

सोमवार, जुलाई 05, 2010

तन्हाई में रोया है

नन्ही सी बूँदें खिलखिलाना भूल गईं हैं
ज़रूर आज मेरा कोई तन्हाई में रोया है

अल्लाह, क्या इसी का है नाम मजबूरी
जो उसे सहारा देने का हक हमने खोया है

आरजू है अपना बना लूं उसका हरेक दर्द
ये मुराद रख के हर रात दिल ये सोया है

मेरी जां तू जान है मेरी, हरेक धड़कन की
दिल की ज़मीं पे ये खयाल आरजू ने बोया है

तेरे इंतज़ार में यूं जी रहे हैं मौत सी ज़िंदगी
जूं हरेक ज़ख्म मेरे ही खूं ने ही धोया है


बस एक बार आ, ओ एक-दूजे के हो जाएँ हम
तसव्वुर इस गरीब ने बस तेरे लिए संजोया है

शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

मुन्तजिर तो थे

मुन्तजिर तो थे

अपनी एक रचना आप की आप सभी की नज़ारे-इनायत की खातिर पेश कर रहा हूँ.



हम
वक़्त के चलन से यूं बेखबर न थे
लेकिन तेरे वादे के मुन्तजिर तो थे

क्यूं फेर ली निगाह मेरा हाल देख के
जलवे मेरे यूं तो कभी बेअसर न थे

अपना दिल-ओ-जां भी कर दिया निसार
पता चला कि वो भी पुरअसर न थे

तेरे इश्क में बन गए तमाम लोग मगर
हम से मिट जाएँ वो दिल-जिगर न थे

गमे-रोज़गार ने था मसरूफ कर दिया
अगरचे तेरे बुलावे से बेखबर न थे

तू हँस ले, कह के दास्ताँ मेरे अंजाम की
हम भी इस अंजाम से बाखबर न थे


जां, रहा हूँ शराबी, मुद्दतों का मैं लेकिन
किसी भी शराब में तुझसे असर न थे


न कर इन्तेजाम मुझ से दूरी का ऐ जां

तेरी इस अदा के हम मुन्तजिर न थे


अर्थ
मुन्तजिर- इच्छुक, ख्वाहिशमंद
पुरअसर न थे- जिनका कोई असर न हो

गमे-रोज़गार- नौकरी की चिंता
मसरूफ- व्यस्त
अगरचे- वैसे तो
जां - जिसे प्यार किया है

बुधवार, जून 30, 2010

महबूब मरहले

कुछ लिखा है मैंने, कृपया आशीर्वाद दीजिये

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चश्मे-नम, लब की हाय ओ कलम का दर्द
कितने मेहबूब मरहले ग़ज़ल ने पाए हैं

फ़रिश्ते बाँट रहे थे जिधर तमाम खुशियाँ
वहाँ से हम तेरी जुस्तजू मांग लाए हैं

यकीनन किसी गरीब की बेटी जवां हुई है
बेवक्त काले बादल ऐसे ही नहीं छाए हैं

लोरी सुना सुलाता हूँ उन्हें बच्चों की तरह
तुझसे मिले ज़ख्म कुछ यूं अपनाए हैं


पिला के पानी ओ सुना के रोटी की दास्ताँ
भूखे बच्चों को सुलाती मजबूर माएँ हैं

खुद फ़रिश्ते लेते हैं उनके कदमों का बोसा
तेरे कूचे से हो कर दार को जो जाए हैं

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अर्थ
चश्मे-नाम- भीगी आँख
ओ- और
मरहले- वाक्यात, घटनाक्रम
बोसा- चुम्बन
दार- सूली, सलीब

रविवार, जून 27, 2010

ज़ब्त की दौलत

अपनी एक पुरानी रचना पेश कर रहा हूँ, कृपया गौर करें
धन्यवाद
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आंख का आंसू और न छालों का पानी निकले
येह ज़ब्त की दौलत सफ़र में काम आएगी

बहुत किया इंतज़ार किसी खास के आ जाने का
अब तो इस मंडप में गम की बारात आएगी

मालूम है कि मैं नहीं हूँ गुनाहगार, लेकिन
हरेक उंगली मेरी ही ऑर मुड़ जाएगी

जिस रोज़ किया था तूने मिलने का वादा
न पता था, उसी रोज़ रुत बदल जाएगी

जिस वक़्त उड़े फिरे थे आसमान में हम
क्या पता था कि वो डोर ही कट जाएगी

तुझसे कुछ कहने की तो थी सारी तैयारी
सोचा भी न था, ज़ुबान ही कट जाएगी

येह जान कर ही किया दिल का सौदा मैंने
एक रोज़ तू किसी और की हो जाएगी

मत बोलो, दीवानों से कि न जागो हर शब्
जवानी की है आदत, जाते-जाते जाएगी

शनिवार, जून 26, 2010

मुन्तजिर तो थे

अपनी एक रचना आप की आप सभी की नज़ारे-इनायत की खातिर पेश कर रहा हूँ.



हम
वक़्त के चलन से यूं बेखबर न थे
लेकिन तेरे वादे के मुन्तजिर तो थे

क्यूं फेर ली निगाह मेरा हाल देख के
जलवे मेरे यूं तो कभी बेअसर न थे

अपना दिल-ओ-जां भी कर दिया निसार
पता चला कि वो भी पुरअसर न थे

तेरे इश्क में बन गए तमाम लोग मगर
हम से मिट जाएँ वो दिल-जिगर न थे

गमे-रोज़गार ने था मसरूफ कर दिया
अगरचे तेरे बुलावे से बेखबर न थे

तू हँस ले, कह के दास्ताँ मेरे अंजाम की
हम भी इस अंजाम से बाखबर न थे


जां, रहा हूँ शराबी, मुद्दतों का मैं लेकिन
किसी भी शराब में तुझसे असर न थे


न कर इन्तेजाम मुझ से दूरी का ऐ जां

तेरी इस अदा के हम मुन्तजिर न थे


अर्थ
मुन्तजिर- इच्छुक, ख्वाहिशमंद
पुरअसर न थे- जिनका कोई असर न हो

गमे-रोज़गार- नौकरी की चिंता
मसरूफ- व्यस्त
अगरचे- वैसे तो
जां - जिसे प्यार किया है

गुरुवार, जून 24, 2010

वो बरसात

अपनी एक और रचना पेश कर रहा हूँ
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बूंदों की शक्ल में वस्ल का पैगाम आया था
वरना क्या वक़्त ने यूं ही हमे मिलाया था

सच कहूं वो ख्वाब की ताबीर वाले लम्हे थे
ख्वाब जो मुझे हर बरसात ने दिखाया था

कांपते लब-ओ-दस्त पे भी रहम करते हुए
फलक ने आबे-जमजम उन्हें पिलाया था

ख्वाहिश हुई समेट लूं तुझ को खुद में मैं
अपने रूप में तूने कैसा नशा मिलाया था

सिलसिला सा रहें ये बरसात-ओ-ये वस्ल
वक्ते-जुदाई फ़क़त ये ही ख़याल आया था

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अर्थ
वस्ल- मिलन
ख्वाब की ताबीर- सपने का सच होना
लब-ओ-दस्त- ओंठ और हाथ
फलक- आसमान
आबे-जमजम - पवित्र जल
वक्ते-जुदाई- अलग होते समय
फ़क़त- केवल

मंगलवार, जून 22, 2010

पैगाम नहीं है

कृपया मेरी एक रचना पर गौर करें
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सूखी हुई हैं बूँदें, हवा भी गरम-गरम है
अबके सावन में तेरा पैगाम नहीं है

मिसाले-नाकामी में एक मेरा ही जिक्र है
सौदाई तेरा अभी गुमनाम नहीं है

शाम बिताने को तो नसीब न हुई तेरी ज़ुल्फ़
रात बिताने को भी मुकाम नहीं है

जब साथ थे हम तो बादशाहों सी थी ज़िंदगी
अब तू अनमोल, मेरा दाम नहीं है

कोरा कागज़ ही सही कुछ तो भेज देते तुम
क्या वफ़ा का कोई ईनाम नहीं है?

दमे-आखिर हिचकी का गला घोट चुके हम
वादा था, सो तुझ पे इलज़ाम नहीं है

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अर्थ
मिसाले-नाकामी- असफल होने का उदाहरण
सौदाई- प्रेम में पागल
दमे-आखिर- आखिरी सांस

गुरुवार, जून 17, 2010

तुम्हारे लिए

मेरी एक नई रचना सादर पेश है
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एक मुद्दत से तुम्हारी आंख को तरसे हैं ये
ख़त के इन शब्दों को तुम प्यार देना

तुम्हारे लिए सही है कलम की कैद इन ने
बस इन पे तुम थोड़ी मुस्कान वार देना

ज़माने की बुरी नज़र से इनको बचाना है
आँख का काजल तुम इनको उधार देना

आँख से पहले जो चूम लें तुम्हारे आरिज़
हल्की सी इन को एक चपत मार देना

सिर्फ तुम्हारी खातिर मिला हैं इन्हें वजूद
यह हिदायत इन को तुम बार-बार देना


कहीं दूर गहरी नींद में मुस्कुरा उठूँगा मैं
बस पास सुला के इन्हें तुम दुलार देना

बुधवार, जून 16, 2010

ऐतबार अभी बाकी है

कृपया मेरी एक और रचना पर गौर करें

जन्नत मिलने का इंतज़ार अभी बाकी है
तेरे वादे पे ऐतबार अभी बाकी है

उम्र भर नींद ली पलकों को बिन गिराए
तेरे दीदार का करार अभी बाकी है

हलक में फंसी हिचकी भी हो जाए आज़ाद
ज़िन्दगी का येही कार अभी बाकी है

तू भी बन अपना, खंजर से कर दे वार
तकदीर की कुछ मार अभी बाकी है

दूरी में खो गए हमारे तमाम निशाँ मगर
खुश हूँ, यादों का तार अभी बाकी है

सदियों से मिट रहा नदियों का शीरीं आब
समंदर में क्यों खार अभी बाकी है


मिट गया है मेरी हरेक आरजू का वजूद
फिर भी दिले-बेक़रार अभी बाकी है


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अर्थ
करार- अनुबंध, एग्रीमेंट
हलक- गला
कार- काम

शीरी आब- मीठा पानी
खार- खारापन
वजूद- अस्तित्व

गुरुवार, जून 10, 2010

याद का नूर

अभी-अभी मैंने कुछ लिखा है, कृपया गौर करने की तकलीफ करें


तनहा रात में चमक उठते हैं ज़ख्म तमाम
तेरी याद का नूर ऐसा कमाल करता है

उम्र भर रोते रहें लिपट के खुद के साये से
तन्हाई में दिल कुछ ऐसा ख़याल करता है

हमारे दरमियाँ ये "था" कहाँ से आया है
जिसे भी देखिये, ये ही सवाल करता है

समंदर की लहरों में भी वो असर कहाँ
दर्द से उठा अश्क जो बवाल करता है

तिल-तिल कर हम ख़तम हो रहे हैं यूं
गाँव का हाल जैसे अकाल करता है

दम के निकलने तक कोई तो आ जाएगा
ये ख़याल उम्मीद को बहाल करता है

शुक्रवार, जून 04, 2010

तोहफे में बेड़ियाँ

अपनी एक और रचना सादर पेश कर रहा हूँ, कृपया गौर करें


हादसों के साथ-साथ बहते चले गए
दर्दे-दिल, दिल ही से कहते चले गए

जहाँ भी मिली छाओं, वोहीं छोड़ के जिस्म
प्यास लिए नज्द को चलते चले गए

ख्वाबों का आशियाँ तो फिर ना ही बन सका
ख्वाबों के खँडहर ही में रहते चले गए

खुशी का लफ्ज़ याद से कब का जा चुका
बस हाय दिल, हाय जां कहते चले गए

आस्मां के सिम्त, कूच करते वोह अपने
क्यों तोहफे में बेड़ियाँ देते चले गए

तेरे नाम का गुलाब, हाथों में लिए हम
ज़ख्मों से रिसता खून सहते चले गए

अब न और याद आ, न अब और याद आ
कह-कह के तुझे याद करते चले गए

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अर्थ
नज्द- वोह रेगिस्तान जहाँ मजनू ने दम तोडा था
छाओं- छाया
आशियाँ- घर
लफ्ज़- शब्द
आस्मां के सिम्त कूच- आसमान की और रवाना होना

मंगलवार, जून 01, 2010

आ जा कि.....

अभी अभी जो दिमाग में आया वोह लिख रहा हूँ (दिल से ) मैं ही लिख रहा हूँ, येह मेरी ही लिखी लाइन हैं


आजा कि तेरी चाह में सदियों का रतजगा है
येह फ़रिश्ता नहीं एक इंसान जगा है

तू तो दिखा के ख्वाब यूं दूर पहुँच गयी
उम्मीद का वोह चिराग अब भी जवां है

कहना था आसां कि तुम जी के देख लो
आ के देख लो येह ज़िन्दगी ही सजा है

मत रखो मलहम इस दिल के ज़ख्म पर
इस दर्द का भी तुझ माशूक सा मज़ा है

सौ बार मार देंगे हम अपना दिले-नाकाम
फिर आ जाये वोह जिसका नाम क़ज़ा है

आरजू का क्या, इक रेत का महल है येह
बस येह कि हरेक ज़र्रे पे तेरा नाम लिखा है

तू बनी बेवफा सही, खुश रहे हो जहाँ भी तू
तेरी खुशी को, मेरा हर सजदा अता है

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अर्थ
रतजगा- रात भर जागना
माशूक- प्रेमिका
दिले-नाकाम- असफल मन
क़ज़ा- मौत
ज़र्रा- कण
सजदा- श्रद्धा से सिर झुकाना
अता- समर्पित

एक पल

अपनी एक और रचना पेश कर रहा हूँ, कृपया गौर फरमाएँ

उस एक पल का हूँ मुन्तजिर
कि, खुदा को भी जब भुला दूं मैं

दुनिया-उक़बा, दैरो-हरम को
काफ़िर के मकाँ सा बना दूं मैं

हश्र की सोच न वाइज की परवाह
जजा-ओ-कुफ्र को मिला दूं मैं

फ़र्ज़ की बंदिश, उसूल के झगड़े
ये दाम-ओ-गुरूर मिटा दूं मैं

तेरी मांग भर तुझे चूम लूं
तुझे फ़क़त अपनी बना लूं मैं

उस एक पल का हूँ मुन्तजिर....

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अर्थ
मुन्तजिर---- इच्छुक
दुनिया-उक़बा --- दुनिया और समाज
दैरो -हरम---- मंदिर और मस्जिद
काफ़िर-- मूर्ति पूजक
मकाँ--- मकान
हश्र-- परिणाम
वाइज--- उपदेशक
जजा--कुफ्र--- पाप और पुण्य

दामो-गुरूर-- जाल और घमंड
फ़क़त-- केवल



सोमवार, मई 31, 2010

येह ज़िन्दगी

अपनी एक ताज़ा रचना पेश कर रहा हूँ

ज़ख्म-दर-ज़ख्म, फिर आस-दर-आस
किस कदर है
मायनेखेज़ येह ज़िन्दगी

धूप तक ही है मिलन, ओस का गुलों से
किस कदर है
मुख़्तसर येह ज़िन्दगी

जल-जल के जीता सूरज, आवारा फिरे चाँद
किस कदर है
बेकरार येह ज़िन्दगी

हीर भी थी उसकी, राँझा भी था उसी का
किस क़दर है
लाचार येह ज़िन्दगी

याद दिला तेरी , उधार दे दी चंद साँसें
किस कदर है
साहूकार येह ज़िन्दगी

तुझ से की जो ख्वाहिश, गुनाह नहीं है
किस कदर है
तलबगार येह ज़िन्दगी।

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अर्थ
मायनेखेज़- अर्थपूर्ण
मुख़्तसर- छोटी

शुक्रवार, मई 28, 2010

हम से न अब इस दिल का हाल पूछिए

तमाम ज़ख्मों पे न कोई सवाल पूछिए

सजा रखी थी खुशनुमा चेहरों की जो नुमाइश
क्यों उठ गयी उससे, नकाब न पूछिए

माजी को भूल कर जब फिर किया यकीन
मिला क्यों आशना खंजर, अब ये न पूछिए

वो जो हैं शब् भर महफिलों की जां
बिस्तरों की सिलवटों से उनका हाल पूछिए

मोम सा दिल, है पिघलता जिनके अन्दर
क्यों दिखाएँ संग बन के, उन से ही पूछिए
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अर्थ- नुमाइश- प्रदर्शनी
माजी- अतीत, बीता हुआ कल
आशना- पहचाना हुआ
संग- पत्थर

शुक्रवार, मई 21, 2010

क्यूं सावन आया है

अपनी एक और रचना पेश कर रहा हूँ, कृपया गौर फरमाइए

खुद पर आज हंसने का ख्याल आया है
जब येह सुना कि तूने हमें बुलाया है

हम तो आस छोड़, थे कर चुके हिसाब
कि ज़िंदगी से क्या मिला, क्या गवाया है

तोड़ चुकी दम सियाही जिन खतों की
उन खतों पे क्यूं आज सावन सा आया है

मायूसे-इश्क आँख न लगे आज शब्
आँख में इंतज़ार का लम्हा सजाया है

हमारा हो ख्याल कहीं, भूल चुके हम
"ठीक तो हो" का आज क्यूं पैगाम आया है

सच कहूं कि जब-जब भुलाया तुझको
उतनी दफा लबों पे तेरा नाम आया है

ऐ दो जहां के मालिक, लौटा दे गुज़रे पल
जवानी में चूका, आज वोह सलाम आया है

बुधवार, मई 19, 2010

गम की बारात

काफी देर से दिमाग में आ रही बातों को मैंने निम्न लिखित शक्ल दी है, कृपया गौर करें
धन्यवाद
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आंख का आंसू और न छालों का पानी निकले
येह ज़ब्त की दौलत सफ़र में काम आएगी

बहुत किया इंतज़ार किसी खास के आ जाने का
अब तो इस मंडप में गम की बारात आएगी

मालूम है कि मैं नहीं हूँ गुनाहगार, लेकिन
हरेक उंगली मेरी ही ऑर मुड़ जाएगी

जिस रोज़ किया था तूने मिलने का वादा
न पता था, उसी रोज़ रुत बदल जाएगी

जिस वक़्त उड़े फिरे थे आसमान में हम
क्या पता था कि वो डोर ही कट जाएगी

तुझसे कुछ कहने की तो थी सारी तैयारी
सोचा भी न था, ज़ुबान ही कट जाएगी

येह जान कर ही किया दिल का सौदा मैंने
एक रोज़ तू किसी और की हो जाएगी

मत बोलो, दीवानों से कि न जागो हर शब्
जवानी की है आदत, जाते-जाते जाएगी

शुक्रवार, मई 14, 2010

आखिर क्यूँ ??????

कुछ लिखा है, कृपया गौर फरमाइए





अक्सर करता हूँ अफ़सोस कि
तकदीर ने इंतज़ार के तमाम लम्हात
मेरे लिए तुझसे ही क्यों जोड़ दिए
कि
हिजाब के तेरे हर एक फैसले
मेरे हिस्से आने को ही छोड़ दिए

कि
माजी के तमाम दर्दनाक हिज्र
मेरे अफ़साने से ही जोड़ दिए

कि

नज़्द से उठते हर एक गुबार

मेरे मयक़दे को ही मोड़ दिए

कि

तेरे दर तक ले जा पाते जो
वोह ही सारे इशारे तोड़ दिए

कि

संग फेकने उठे तमाम हाथ
मेरी ही सिम्त यूं मोड़ दिए

कि

अब जब भूल गया था सब

क्यूं माजी से तार जोड़ दिए

अक्सर करता हूँ अफ़सोस कि
किस वादे पे यूं दुनिया छोड़ गए

शनिवार, अप्रैल 24, 2010

याद है रेनू?---------------------कविता

पहली बार इस शैली की कविता लिख रहा हूँ, शायद किसी को पसंद आ जाए


गरमी की छुट्टी की

वोह दोपहर याद है रेनू ?

जब लिए रिजल्ट हम

साथ लौट रहे थे घर को

स्कार्फ और फ्रोक में तुम

और निक्कर-कमीज़ में था मैं

तुम्हारे पास से आती तेल और पावडर की खुशबू

कितना अपना और पहचाना सा था सब कुछ


फिर सफ़र हुआ ख़तम

हम अपने-अपने घर को चल पड़े

फिर,

अपना-अपना नया स्कूल

अपना-अपना कोर्स

अपना-अपना दायरा

अपना-अपना भविष्य

फिर,

अपना-अपना कोई और................................


यकीन मानो, वोह निक्कर-कमीज़ वाला 'मैं'

आज भी सफ़र के खात्मे पर खड़ा हूँ


गरमी की छुट्टी की

वोह दोपहर याद है रेनू ?

सोमवार, अप्रैल 19, 2010

मेरे सनम

मुझसे मत यूं रूठ सनम

कि मुझ से गुनाहगार ने
टुकड़ों में किए सबाब
हासिल की कुछ दुआएं
और अल्लाह से मिली नेमत,
इन सब का बना कर मंदिर
उसमें बस तुझे पूजा है
जो तू नहीं
तो वीरान हो जाएगा यह मंदिर

तेरा अहेतराम किया है मैंने
तू कबूल ले इल्तेजा मेरी

मुझ से मत यूं रूठ सनम

गुरुवार, अप्रैल 08, 2010

मेरे हमसफ़र

कॉलेज के दौर में लिखी थी यह कविता, वोह ३१ अक्टूबर और १ नवम्बर, १९९१ की दरमियानी रात थी। उस रात मेरे साथ सिर्फ सन्नाटा था और किसी साथ की कोई भी उम्मीद रात के कोहरे में गुम हो चुकी थी।


मेरे हमसफ़र
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चाँद के दाग

जिस रात आयेंगे और उभर।


पवन उतरेगी नस-नस में

जैसे कोई ज़हर।


चांदनी चुभती रहेगी

बन कर कहर।


तारे बिखेर न पाएँगे छटा

एक भी प्रहर।


ओस दिखायेगी तन-मन पे

अम्ल सा असर।


तम में घिरा संसार

होगा यूं, जैसे मेरा खँडहर।


उस रात

विश्वास के साथ

किसी दरीचे में ठहर

पूछूंगा इनसे

तुम, क्या तुम सब

बनोगे मेरे हमसफ़र????????????????

i

बुधवार, अप्रैल 07, 2010

चंद अशआर

अलग-अलग हालत और मूड में मेरे दिमाग में जो आता था वोह लिख कर रख लिया था, आज वोह सब दोबारा लिख कर यूं लग रहा है मानो तिनके समेट रहा हूँ।


इम्तियाज़ नहीं तेरे सितम, मेरी ज़ब्त में
तू हम पे, हम तुझ पे मुस्कुराये जाते हैं

००००००००००००००००००००००००००००००
लडखडाता न जायेगा रिंद तेरे दर से
मयकदा में ऐसा कुछ हो गया है साकी
मय का नशा तो बरक़रार है लेकिन
सुना है तेरा हुस्न अब ढलने लगा है साकी
00000000000000000000000000000
पता नहीं है किसका इंतज़ार ज़िन्दगी को
बस जानता हूँ इतना, कोई आने वाला है
000000000000000000000000000

कभी जो मिली ज़िन्दगी तो पूछूंगा ज़रूर
कैसे हैं वोह, जिनके हाथों सौंप आया था तुझे

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आसान नहीं है साथ यूं किसी का पा सकना
अपना साया तक धूप में जल कर मिला हमें

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कोई पाक दामन नहीं, वोह मेरा कफ़न था नादां
जिसको छू की थी दुआ तुमने मेरे जीने की
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http://www.blogger.com/post-create.g?blogID=4661467735689100513

गुरुवार, मार्च 25, 2010

वोह शब्

कुछ दिनों से काफी कुछ जेहन में चल रहा था। बस वोह ही लिख रहा हूँ, रात के उन लम्हात का शुक्रिया कहते हुए जब खुद से ही रूबरू होने का मौका मिल जाता है, ऐसी ही एक रात के नाम

वोह शब, जो ओढी थी चादर तिरे ख़यालात की

वोह शब, जो मुन्तजिर थी तिरे सवालात की

वोह शब, जो खामोश थी मिरे जज़्बात सी

वोह शब, जो नीम थी मिरे हालात सी

वोह शब, रह गयी है कहीं पीछे
अब सहर का खौफ तारी है

रविवार, फ़रवरी 28, 2010

होली पर देव डी की दर्द भरी दास्तान

साथियों, प्रूफ की गलती के चलते पहले वाली पोस्ट में कुछ महाभूल हो गयी थीं, माफी के साथ संशोधित कविता पेश है


होली पर हंसी की बात न हो तो मज़ा क्या है, तो लीजिए पेश है वोह कविता जो हमने कॉलेज के दौर में मस्ती के मूड में लिखी थी
साल भर देखे ख्वाब जिसके संग खेलने को होली

होली के दिन वोह किसी और की हो ली

और हमारी खाली रह गयी झोली


साल भर डालते रहे जिस पर हम डोरे

एक दिन उसीने हमें पहना दी डोरे

और लाड से बोली राखी का बंधन निभाना भैया मोरे


दीवाली पर हमने नया तरीका आजमाया

उनके पास जाकर श्रद्धा से सर झुकाया

और कहा, हम तो बस इतना जानते हैं

की आपको ही लक्ष्मी मानते हैं

अब तो दीवाली तब ही मनाएंगे

जब आपको बना के लक्ष्मी घर पर लायेंगे

वोह बोली, आपकी भावना मैं जानती हूँ

आप मुझे लक्ष्मी, मैं आपको लक्ष्मी का वाहन मानती हूँ



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सभी को होली की शुभकामनाएँ

आपका

देव.डी

शनिवार, फ़रवरी 27, 2010

रत्नाकर की कलम से मुकाम सुकून

बीती देर रात ऑफिस से आने के बाद न जाने मन कैसा हो रहा था, जब अति हो गयी तो कुछ लिख डाला, कृपया देखिए

नूरे-माजी में छिना

वो तीरगी का लुत्फ़

अगरचे मुकामे सुकूं

तलाशा किये थे हम
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मारा तुझसे अहद ने

पसे-नज्द ला के हमको

वरना मंजिले-ज़िन्द

आ ही चुके थे हम

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सदके मैं कुफ्रे-ज़िन्द

एक आह ही बची है

यूं तो शबाबे-महशर

पा ही चुके थे हम
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अल्लाह क्या है दोजख

ओ क्या जन्नत का ख्वाब?

कुरबां दिले-साहिर

सब भूल गए थे हम
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रहे सलामती उनकी

रस्मे-ज़फ़ा के संग

अशआर जिनकी खातिर

अब बन गए हैं हम

शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

इस साले सिस्टम का क्या करें

मध्य प्रदेश में एक नाटक काफी चर्चित है, 'इस साले साठे का क्या किया जाये?' यह नाटक कई बार मंचित किया जा चुका है और मैंने भी इसे एक बार देखा है, इस तरह के और भी आयोजन देखे हैं और हर बार मन में कई सालों (भाषा के लिए माफ़ी चाहता हूँ ) के लिए येही सवाल उठता है की इनका क्या किया जाये? यह "साले " वोह हैं जो हमारे यहाँ के भारत भवन में मुफ्त प्रदर्शित किये जाने वाले हर नाटक में आगे की सीट पर नज़र आते हैं। वेह पूरे नाटक के दौरान बार-बार ऊंची आवाज़ में संवाद की तारीफ, अदायगी की तारीफ आदि करते हैं और सब का ध्यान अपनी और खींचने की कोशिश करते हैं। वस्तुतः, एक कला प्रेमी होने से ज्यादा उनका ध्यान स्वयं को 'आगे की सीट का दर्शक ' बताने में रहता है। इन्हीं 'सालों ' में ऐसे मुफ्तखोर भी हैं, जो मुफ्त के मनोरंजन के लिए कला मर्मग्य बन जाते हैं, आयोजन में समय बिताने के लिए जाते हैं और अनावश्यक भीढ़ बढ़ा देते हैं, जबकि इनके चलते कई बार उस प्रस्तुति के सच्चे प्रशंसक को निराश होना पड़ता है। ऐसे "सालों " के दो उदहारण देता हूँ, सन १९९४ में इस्माइल मर्चंट की फिल्म मुहाफ़िज़ रिलीज़ हुई। चूंकि इसका अधिकाँश हिस्सा भोपाल में फिल्माया गया था, इसलिए पहले दिन यहाँ के रविन्द्र भवन में फिल्म का मुफ्त प्रदर्शन रखा गया। उसे देखने के लिए मानो पूरा शहर वहाँ आ गया था। रविन्द्र भवन में पांव रखने की भी जगह नहीं बची थी, यह बात और है की इस स्थान से कुछ ही दूरी पर बने रंगमहल टाकीज (अब सिनेप्लेक्स ) में उसी समय इस फिल्म का शो खाली गया, क्योंकि उसे देखने के लिए टिकेट लेना ज़रूरी था।
पिछले साल प्रसिद्द फिल्म स्लाम्दोग का रविन्द्र भवन में मुफ्त शो रखा गया, एक बार फिर मुहाफ़िज़ जैसे ही हालत बने। उस समय भी इस फिल्म के संगम टाकीज में शो चल रहे थे, जो लगातार खाली गए। वाकई इन "सालों " के चलते कहना पड़ता है "मुफ्त के मनोरंजन की जय हो "

सोमवार, फ़रवरी 08, 2010

रत्नाकर की कलम से... ख्वाब और हकीकत

कुछ अजीब मूड में लिखी थी यह पंक्तियाँ, दास्तान किसी और की थी और तसव्वुर मेरा, गौर फरमाइए

तसव्वुर तेरा , उसे भी रहा मुझे भी

दीदार तेरा, उसे भी हुआ, मुझे भी

मोहोब्बत तेरी, उसे भी मिली मुझे भी।

फरक तो था, फ़क़त इतना...

हकीकत उसके दामन थी

ख्वाब मेरे रहे हमदम।

रविवार, फ़रवरी 07, 2010

दूसरों की कलम से जो लगा बहुत ही अच्छा

नाम याद नहीं आ रहा, लेकिन उनका सरनेम त्रिपाठी है, सागर के हैं, उनकी एक कहानी "सिगरेट " उनके किसी कहानी संग्रह में पढी थी। आज तक उसे नहीं भूल सका हूँ। युवा मानसिकता को समझाने वाली ऐसी कहानी मन को छू जाती है। इसी संग्रह में शामिल "हार जीत " भी बेहद अच्छी थी। एक और कहानी का नाम भूल गया हूँ, वोह भी मर्मस्पर्शी थी, जिसमें एक युवक सफ़ेद दाग से पीड़ित अपनी माँ का जीवित अवस्था में पिंडदान कर देता है। कभी किसी का त्रिपाठी जी से संपर्क हो तो कृपया उन्हें मेरा अभिवादन ज़रूर कह दें।
सारिका के काफी पुराने एक अंक में कृष्ण कालिया की स्टोरी "पीले फूलों वाली फ्रोक " पढी थी। आज भी जब उसे पढ़ता हूँ तो हमेशा लगता है की कुछ और बेहतर कुछ और नया पढ़ा है। उस कहानी में बचपन की भावनाओं की अधेड़ अवस्था में जो अभिव्यक्ति बताई गयी, उसका कोई जवाब नहीं है।
इलाचंद्र जोशी का उपन्यास "संन्यासी " कॉलेज के समय में काफी बार पढ़ा था, लेकिन अब वोह देखने ही नहीं मिलता है। कई पुस्तकालय भी देख चुका हूँ, किसी को इसके बारे में पता चले तो कृपया बताएं , नहीं तो उसे पढ़िए ज़रूर

शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2010

तोड़ दें कलम

यदि मैं जज होता तो इसे फैसले के रूप में लिखता और फिर कलम तोड़ देता। बात एक लाइन की है राज ठाकरे के बारे में कुछ भी लिखना बंद कर दीजिये, आप चाहें उसकी लाख बुराई कर लें लेकिन इससे उसका नाम ही चल रहा है, और यह ही वोह चाहता है। उसकी और ध्यान देना बंद कर दीजिये, देखिये वोह खुद ही चुप हो जाएगा। यह मैं उसके बारे में पहली और आख़िरी बार लिख रहा हूँ, भगवान् न करे की दोबारा कभी उसके बारे में लिख कर अपनी लेखनी को प्रदूषित करना पड़े।

गुरुवार, फ़रवरी 04, 2010

मुड़कर भी नहीं देखा.......

दोस्तों, एक शेर है
''मुड़कर भी नहीं देखा झोंके की तरह उसने
वोह, जो मेरे बराबर से हंसते हुए गुज़रा है''

क्या हिंदी फिल्म्स के कई नाम आज ऐसा ही नहीं सोचते होंगे? सफलता एक बार उनके करीब आई, उनके साथ चली और फिर उनसे आगे निकल गयी, फिर उनके आसपास यूं बिखर गया सन्नाटा, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। कुछ ने अपने फैसलों की गलती की सज़ा भुगती और कुछ हालात के शिकार हो गए। हमराज़ की (सुनील दत्त fame ) विम्मी तो आपको याद होंगी, किस क़दर धमाकेदार शुरुआत थी उनकी, मासूम चेहरा और काफी कुछ बोलने को आतुर आँखें, इन्होने उन्हें रातों रात सितारा बना दिया था। उसके बाद वोह शशि कपूर के साथ पतंगा में दिखीं, फिल्म औंधे मुंह गिरी, आप जानते हैं की फिर विम्मी का क्या हुआ? हज़ारों दिलों की धड़कन वोह अभिनेत्री एक अस्पताल में लावारिस मरी मिली। महंगा इलाज़ तो दूर, उनके पास देसी शराब पीने के भी पैसे नहीं बचे थे। सारी पूंजी अपने फोटो सेशन और फिल्म के प्रचार पर खर्च कर चुकी विम्मी खामोश हो गईं।
क्या आपने कभी फिल्म स्टार तापस पाल का नाम सुना है? शायद नहीं, यह वोह ही शख्स था, जिसके साथ माधुरी दीक्षित ने "अबोध " फिल्म से अपना करियर शुरू किया था, माधुरी ने बाद में सफलता के झंडे गाड़े और तापस न जाने कहाँ पीछे रह गए। क्या आप स्वरुप दत्त को जानते हैं? वे कभी जया भादुड़ी के साथ हीरो बनकर "उपहार " फिल्म में आए थे, जया कहाँ से कहाँ पहुँच गईं और स्वरुप न जाने कहाँ रह गए? नूतन बेहतरीन अभिनेत्री तक का सफ़र तय कर चुकीं लेकिन उनकी सुपर हिट फिल्म "सरस्वती चन्द्र " के हीरो मनीष का अब कोई नाम भी नहीं लेता है। .
गायकी में एक समय अपना मुकाम बनाने वाले शैलेन्द्र सिंह की गुमनामी भी त्रासदायी है। दो जासूस के बाद उन्हें हीरो बनने की सूझ गयी, उन्हें रेखा के साथ अग्रीमेंट जैसी फिल्म भी मिल गयी, लेकिन आगे वे अभिनय में सफल नहीं रहे और न ही गायकी में उन्हें पुराना मुकाम मिल सका।

काजल किरण ने जब ऋषि कपूर के साथ "हम किसी से कम नहीं " की तो वेह सुर्ख़ियों में आ गईं, उन्हें मिथुन के साथ एक दो फिल्म भी मिलीं, लेकिन बाद में वोह सिर्फ रामसे बंधुओं की फिल्म्स तक ही सीमित हो गईं, हालत यह हुई की उन्हें अनिल कपूर की फिल्म "अन्दर बाहर " में आयटम नंबर करना पड़ा, वोह भी अंग प्रदर्शन के साथ। काजोल आज स्थापित अभिनेत्री हैं, लेकिन उनकी पहली फिल्म "बेखुदी " में उनके हीरो बने कमल सदाना गुम हो चुके हैं। किसी समय "मैंने प्यार किया " के जरिये हर दिल में जगह बनाने वाली भाग्यश्री के लिए अब रोल के लाले हैं, उन्हें तो अक्षय कुमार की बहन का छोटा रोल (हमको दीवाना कर गए ) तक करना पड़ा

प्रतिघात की ज़बरदस्त सफलता के बाद चर्चा में रहीं सुजाता मेहता की प्रसिद्धि का सफ़र बस इतना हीरहा , बाद में वे "कंवरलाल " जैसी इक्का-दुक्का फिल्मों में दिखीं और फिर गायब हो गईंकुली में धमाकेदार शुरुआत करनी वाली शोभा आनंद आज अपने मोटापे के चलते कोमेडी कर रही हैं और तब उनके हीरो रहे ऋषी कपूर भरपूर नाम कमाने के बाद अवकाश का जीवन बिता रहे हैंफरदीन के पास भी ठीक ठाक मुकाम है, लेकिन उनकी पहली फिल्म "प्रेम अगन " की हेरोइन अंजलि जठार जाने आज कहाँ हैं? "कहो प्यार है " के बाद ऋतिक आज शिखर पर हैं और उनकी हेरोइन अमीषा पटेल का पता ही नहीं है
वाक़ई वक़्त बेहद बलवान है

एक था सुभाष घई

दोस्तों, सुभाष घई तो आपको याद होंगे। ठीक, वोह ही जिन्होंने एक दौर में "हीरो" और "कर्मा" जैसी फिल्म बना कर खासी वाहवाही बटोरी थी। उनकी "रामलखन" ने भी सफलता के झंडे गाड़े थे। यह बात और है कि इनमे से एक भी फिल्म में कुछ खास नहीं था, वस्तुतः सभी फिल्म्स घिसी पिटी कहानी पर बनी थीं, लेकिन भाटों का क्या करें? भाई लोग सक्रिय हुए और अचानक घई को शोमैन का खिताब दे दिया गया, वोह खिताब जो इससे पहले राज कपूर को मिला था। कमाल है की किसी ने भी इन भाटों से नहीं पूछा कि भाई कहाँ राज कपूर और कहाँ सुभाष घई? उस शोमैन ने "आवारा" जैसा उस वक़्त का अनछुआ कांसेप्ट दिया, बहुत कम उम्र में "आग" जैसी कृति रची। मैं आह, बरसात, संगम, बोबी, बीवी ओ बीवी, कल आज और कल जैसी फिल्मों को अलग कर दूं तब भी, मेरा नाम जोकर, जागते रहो, बूट पॉलिश, सत्यम-शिवम्-सुन्दरम, राम तेरी गंगा मैली, राजकपूर को वाकई शोमैन के लायक बनाती हैं। क्या श्री घई या उनके फैन्स उनकी एक भी फिल्म को राजकपूर के पासंग बता सकते हैं? हाँ, धुन या यादें ज़रूर ऐसी फिल्म्स थीं जो घई को अलग पहचान देती हैं, लेकिन घई उनकी दिशा में जा तक मुड़े, शायद देर हो चुकी थी। अब शोमैन का खिताब बरकरार रखने के लिए घई को वोही राजकपूर बनाना होगा, जिसने जोकर की असफलता के बाद बोबी पर दाँव लगाया और कामयाब रहे........................... सुन रहे हैं, श्री घई???????????

मंगलवार, फ़रवरी 02, 2010

पापाजी के लिए

पापाजी, लोगों ने मुझे कहा पागल
और कहा दीवाना
उस ठंडक की रात, जब उन्होंने देखा कि
ठंडक से सिहरते, बगैर गरम कपड़ों के
एक आदमी को, मैंने पहना दिए अपने गरम लिबास
और खुद, उस दो पहियों वाली गाडी पे चल पडा, घर की तरफ,
ठिठुरता हुआ। सब हँसे, पापाजी !
मगर, मैं तो वोह ही याद कर रहा था,
जो आप बचपन से मुझे याद करवाते थे,
"हे भगवान् दया करो, सब जीवों का भला करो,
सबको खाना पानी दो, सब को पूरे कपड़ो दो "
पापाजी, मुझे लगा कि भगवान् जी की बात आपकी ही मुझ से
कह रहे थे, इसलिए मैंने वोह किया...........
अब लोग पागल कहते हैं
तब, उनके स्वरों से बचने के लिए मैं कहता
हूँ ."हे भगवान् दया करो, सब जीवों का भला करो,
सबको खाना पानी दो, सब को पूरे कपड़ो दो "
तब भी पापाजी लोगों का शोर बंद नहीं होता है,
तो मैं अपने कान ही कान में कहता हूँ, पापाजी! पापाजी! पापाजी!
क्योंके मैं जानता हूँ, पापाजी और कोई नहीं हो सकता। सिवाय आप के

आपका बेटा पागल हो सकता है, लेकिन आप हमेशा पापाजी ही रहेंगे
हमेशा की तरह मेरा पूज्यनीय, पापाजी!

आप की बहुत याद आती है।


रत्नाकर

कैसे-कैसे लोग- रत्नाकर के सच्चे अनुभव

दोस्तों, बचपन से आज तक कई ऐसे लोगों से मिला हूँ जो या तो स्वयं बेहद असामान्य थे और या उनसे मिलने के हालात विचित्र रहे, सब तो याद नहीं हैं, लेकिन जितने भी याद आते जाएँगे, उन्हें लिखूंगा ज़रूर, शायद उन में से ही कोई इसे पढ़ ले।

वो पोलिस वाला

तब शायद ९ में पढ़ता था, एक फिल्म लगी थी भोपाल शहर की भारत टाकिज में, नाम था पांच कैदी। फिल्म देख कर अकेला लौट रहा था, पैदल था, पोलिस कंट्रोल रूम के पास एक पोलिस वाले ने अचानक रोक लिया। अपनी पहचान बता देने के बाद मैं निश्चिन्त था की अब वोह मुझे जाने देगा, लेकिन उस भी पर न जाने क्या भूत सवार था, बोला "इतनी दूर तक पैदल ही जा रहे हो?" मेरे हाँ कहने पर वोह बोला परेड मैदान का एक चक्कर काट कर दिखाओ तो बस के पैसे दे दूंगा, मैं फँस गया था, क्योंकि घर से चोरी छिपे फिल्म देखने गया था, बस के पैसे नहीं, मैं तो बस वहाँ से निकल जाना चाहता था। मरता क्या न करता? लगाया, लम्बे चौड़े मैदान का रोउन्द। बेमन से यह किया तो थक भी गया था। उसने पानी पिलवाया, बस के पैसे दिए और बोला "यदि तुम्हारे पिताजी चाहते की तुम पोलिस में जाओ और उसके लिए ऐसा व्यायाम करो तो क्या तुम ऐसा करते?" मेरे हाँ कहने पर उसने अपना पता बताया और दो रुपये और दिए। कहा "साला मेरा बेटा मेरी ऐसी बात मानता ही नहीं है, फिल्म देखने ही चला जाये, लेकिन कुछ पैदल तो चले, तुम्हारी ही उम्र का है, उसे आकर समझाना " मैं फिर कभी उससे नहीं मिला लेकिन आज भी याद है जब बस में बैठ कर मैंने नीचे खड़े उस पिता की और देखा तो उसकी आँख भर आई थी। वोह कुछ संभला और फीकी हंसी हंसते हुए अजीब स्वर में बोला '' पता नहीं, आँख में क्या गिर गया है।'' बस चल पडी थी, मैंने महसूस किया उसकी आँख का पानी उसकी आवाज़ पर उतरने लगा था।

दूसरों की कलम से जो लगा बहुत अच्छा

सारिका के बहुत पुराने अंक में चार पंक्तियाँ पढी थीं, लेखक याद नहीं लेकिन पंक्तियाँ इतनी अच्छी थीं कि हमेशा के लिए याद रह गयी, आप भी सुनिए

" सन्नाटे में बैठे हैं अल्फाज़ वोही लेकिन

माने नहीं मेरे हैं, मतलब नहीं तेरा है"

ऐसे ही कहीं सुना था

' मीठी नदी कोई मिले तो अपनी प्यास बुझा लेना

हम से कुछ उम्मीद न रखना, हम तो सागर खारे हैं"


यह तो अद्भुत लगा

"शब्द-शब्द की आँखें नाम हैं
तुम्हें पता है? यह सब हम हैं"

पता नहीं किसने लिखा था, लेकिन इसे जब भी पढ़ा आँख भर आई

" रसोई में भभकते स्टोव को देखकर, कहती बाकी फिर

कभी में बहन
या, लाम पर भाई
कोई याद कर रहा है हमें"







bakee phir kabhee

सोमवार, फ़रवरी 01, 2010

वोह शोर नहीं उपकार है मनोज का

मनोज कुमार आज भारत कुमार के नाम से हंसी के पात्र बनाए जाते हैं, उनकी स्टाइल ज़्यादातर नौटंकी के करीब आंकी जाती है। ऐसा करना उन लोगों के लिए बेहद स्वाभाविक है जिन्होंने उनकी हालिया फ़िल्में ही देखी हैं। जिनमें संतोष, क्लर्क, कलयुग की रामायण शामिल हैं, लेकिन जिन्होंने शहीद से लेकर शोर तक देखी हैं उनके लिए मनोज को यूं खारिज कर देना शायद ही मुमकिन हो। कम से कम मेरे लिए तो नहीं ही है। उन फिल्मों में कलाकार का चयन इतनी खूबसूरती के साथ किया गया कि कई बार कहीं से कहीं तक एक्टर का किरदार से समन्वय न होने के बावजूद वोह अजीब नहीं लगा। मनोज कुमार का केमरा संचालन उस दौर के लगभग हर फिल्मकार से एकदम हट कर था। उनकी कहानी हट कर होती थी। यह उनका जोखिम ही था कि लिपस्टिक तथा foundation लगे ओंठ और चेहरों वाले हीरो और बाग़ में नाचने तक सीमित हेरोइन वाली बगैर कहानी की अनेक सफल फिल्म्स के दौर में उन्होंने शोर जैसी सफल सामाजिक फिल्म बनाई, जो आर्ट मूवी के काफी करीब थी। यह उनका ही कमाल था कि शहीद से पहले और उससे बाद की फिल्मों में बुरी नीयत के चलते बदनाम मनमोहन को उन्होंने शहीद में चंद्रशेखर आज़ाद बना कर पेश किया और दर्शकों की शाबाशी पाने में सफल रहे। प्राण को अच्छा आदमी बना कर पेश करने का जोखिम उपकार में उन्होंने उठाया और सब को अपनी सफलता से चमत्कृत कर दिया। उपकार उनकी गज़ब की फिल्म थी, जिसमें उन्होंने बोरिंग हुए बगैर यह बता दिया कि जय जवान जय किसान का मतलब क्या है। क्या आपने कभी वोह गाना देखा है 'दीवानों से यह मत पूछो' कितना बेहतरीन फिल्मांकन था उस गाने के पहले का, गाने के बीच का और गाने के बाद का। मदन पुरी हो चाहे हो कन्हैया लाल, या हों प्राण, सब मनोज जी की फिल्म में बेहतरीन लगते थे, मैं मानता हूँ कि 'क्रांति' के बाद से वो वैसे नहीं रहे लेकिन क्या वोह वो मनोज कुमार नहीं रह जाएँगे???????????????????????????????????????????????????????????????????????????????

रत्नाकर की कलम से---- हादसों के दरिया में

हमने तेरी नफरत से मोहब्बत संवारी थी
हादसों के दरिया में कश्ती ये उतारी थी

तेरा जो तगाफुल था, मेरा वो किनारा था
गैर से रिफाकत भी नाखुदा सी प्यारी थी

मेरे कल्बे-बिस्मिल को ज़ब्त ही से निस्बत थी
जुम्बिशों पर भी मेरी तेरी चुप तारी थी

तेरी जुल्फों की चमक, न ही दामन की महक
ये रसन की चाहत थी, दार की तैयारी थी

आख़िरी वो साँसें थीं, आख़िरी वोह ख्वाहिश थी
तूर पे तू आ न सकी, मैंने शब् गुजारी थी

जुर्म का हसीं मौका, गोर की ये तन्हाई
अपने से ही कहता हूँ, तू कभी हमारी थी

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रविवार, जनवरी 31, 2010

रत्नाकर की कलम से

पलकों में क़ैद कर लो
यह अश्क ढल न जाएँ
तेरी आह का जला हूँ
मेरे ज़ख्म भर न जाएँ

तू एक वफ़ा की मूरत
मेरा बेवफा का चेहरा
मेरे हाल पे यूं आंसू
यह फर्क भर न जाएँ

खाली अगर उठे तो
दुआ का गुमान होगा
हाथों से अपने कह दे
पत्थर न भूल जाएँ

अब पोंछ भी लो आंसू
और फेर लो निगाहें
तेरी दीद से है डर
हम फिर संभल न जाएँ।

शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

सहूलियत का दर्द

दोस्तों, शायद सुनने में अजीब लगे, लेकिन सहूलियत के दर्द से परेशान हो रहा हूँ। देखिये ना, आज कोई भी पुराना गाना सुनना हो तो बस नेट पर जाइये, गाना तुरंत हाज़िर है, जब इस सुविधा का पता चला तो मैं काफी रोमांचित हुआ था, लेकिन एकाध दिन बाद ही इस सहूलियत से मन भर गया। क्योंकि इसमें खोज का रोमांच और मेहनत की सफलता का आनंद नहीं था। पुराने गाने सुनने का हमेशा से ही शौक़ीन रहा हूँ। उस समय मेरे भोपाल शहर में तीन या चार दुकाने ही थीं जहाँ पुराना क्लासिक संग्रह मिल सके। तब कितना संघर्ष करते थे एक-एक गाना तलाशने के लिए, न्यू मार्केट में जीटीबी काम्प्लेक्स की सरगम हो या मधु ब्रदर्स, घंटों तक वहाँ खड़े रहकर एक एक एलपी तलाशते थे, गाने की फिल्म का एलपी नहीं मिलता तो पता लगते थे की म्यूजिक किसका है, गाया किसने है या लिखा किसने है यह तक की किस निर्माता की फिल्म थी। गोया की गायक, निर्माता, संगीतकार गीतकार के किसी एल्बम में ही गाना मिल जाए, इसके लिए हर कोशिश करते थे। इन्ही के सामने की भदभदा रोड पर थी ज्योति नाम की दूकान, विलक्षण संग्रह था वहाँ, वहाँ एक बुजुर्ग थे, उन्हें ज़ुबानी याद था की कौन सा गाना किस एल्बम में मिल सकता है। पुराने शहर में कृष्ण रेडियो थी, वहाँ भी बेहतरीन संग्रह था। एक और दूकान नहीं भूल सकता जिसका नाम रिदम हाउस था, उसका भी संग्रह बहुत अच्छा था। कुल मिला कर यह दुकानें हमारे आकर्षण का प्रमुख केंद्र थीं, केसात रेकॉर्ड करने देने के बाद धडकते दिल से उसके मिलने का इंतज़ार करते थे, फिर उससे भी ज्यादा धड़कते दिल से यह सोचते हुए उसे सुनते थे की कोई गाना जगह की कमी के चलते कट न गया हो। केस्ट के ऊपर एक एक गाना लिखते थे। तब एक एक गाना मिलने की जितनी खुशी होती थी, आज वोह नेट पर सारे गाने मिल जाने के बाद भी नहीं होती है।
आज सरगम पर डिशटीवी का काम होता है, मधु ब्रदर्स का व्यवसाय बदल गया है, रिदम हाउस, ज्योति और कृष्णा बंद हो चुकी हैं, जब भी उनके पास से गुजरता हूँ, वोही रोमांच महसूस होता है, जो नेट से नहीं होता।

तेरी तलाश में

बेहद अफ़सोस होता है जब-जब यह अहसास सालता है कि मेरी एक पुरानी कॉपी गुम हो गयी है। उसमें बहुत कुछ लिखा था मैंने, लेकिन वोह सब दूसरों का था जो इतना अच्छा लगा कि उसे नोट कर याद कर लिया। ऐसे ही लोगों में थे श्री अस्थाना, जिनकी एक कविता दीपावली की रात किसी अखबार में पढ़ी तो उसे फिर कभी भी दिमाग से उतार नहीं सका, कविता कुछ यूं थी
झुको, नीचे झुको , ज़मीन तक झुको
और उसके पाँव छू लो, वोह मां है,

बहुत संभव है, ऐसा करने में तुम्हारे पैंट की क्रीज़ ख़राब हो जाए
किन्तु तुम्हारे पैंट की क्रीज़ का, उसके चेहरे की झुर्रियों
और बिवाई फटे पैरों से गहरा नाता है

इसलिए बंधू , झुको, नीचे झुको , ज़मीन तक झुको
और उसके पाँव छू लो, वोह मां है
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पूरा नाम तक याद नहीं है श्री अस्थाना का, लेकिन ग़ज़ब की कविता थी यह, उनकी 'वोह कहानी तो सुनी होगी वैशाली' शीर्षक वाली कविता भी ग़ज़ब की थी। किसी का अस्थाना साहेब से परिचय हो तो उन तक मेरा अभिवादन ज़रूर पेश करने की कृपा करें.
अब ज़रा अस्थाना जी की दूसरी कविता भी सुन लीजिये

तुमने वोह कहानी तो सुनी होगी वैशाली कि

राजा से सज़ा पाया आदमी, रात भर डूबा रहा था, ठन्डे खून जमा देने वाले पानी में

सुबह होने पर उसे बताया गया कि, तुम हमारे समय की सबसे भयानक ठंडक से इसलिए बच गए कि

महल के दिए का ताप तुम तक पहुंचता रहा,

यूं तो राजा की क्रूरता को रेखांकित करती है यह कहानी,

लेकिन यह भी सच है कि दीपक के सहारे आदमी लड़ सकता है

बड़ी से बड़ी लड़ाई

तुम दीप बन कर जलो वैशाली

मैं रात भर खड़ा रहूँगा,

ठन्डे खून जमा देने वाले पानी में.

शनिवार, जनवरी 23, 2010

कल रात एक फिल्म देखी नाम था कथा, देख कर एक बात लगी कि कैसे कोई भूल सकता है साईं परांजपे के बारे में। ग़ज़ब बोल्डनेस का परिचय थी उनकी वोह फिल्म जिसने सदियों के मिथक को तोड़ने और झुठलाने की हिम्मत की थी, वोह मिथक जो बचपन से हमारे दिमाग में बैठा दिया जाता है कि कछुआ और खरगोश की दौड़ हुई थी और उसमें कछुआ जीत गया, सुस्त होने के बावजूद कि खरगोश बीच दौड़ में सो गया था। साईं परांजपे ने तोडा यह भ्रम, नासुरिद्दीन शाह को कछुआ और फारूक शैख़ को खरगोश बना के कि भले ही बेवकूफ और सुस्त नसीर यानी कछुआ जीत गया हो, लेकिन उसके हाथ लगे तो मुरझाये हुए फूल ही, आज की तारिख में जो अपने आप का बोल्ड होने का दावा करती हैं उनका सम्मान के साथ जानना चाहता हूँ कि बहुत साधारण तरीके से इतना बोल्ड बात बताने कि हिम्मत कहाँ चली गयी? क्या जरूरी है कि सेक्स दिखाया जाये या गाली गलोच से भरी बात वाली फिल्म बना दी जाए या किसी कि धार्मिक आस्था को चोट पहुंचाई जाए, वोह भी खुद के बोल्ड या प्रोग्रेससिवे कहलाने के नाम पर? सी परांजपे आप जहां भी हें इस कृत्रिम बोल्डनेस के नाम पर एक बार फिर आपकी जरूरत है.

मंगलवार, जनवरी 19, 2010

समय वाले लोग

पता नहीं लोगों को क्या हो गया है? यह भी कह सकते हैं की यह उन्हें काफी पहले से हो चुका है। क्या कभी देखा है आपने कि किस तरह किसी इमारत की लिफ्ट का इंतज़ार कर रहा व्यक्ति रह-रह कर उसके बटन दबाता रहता है, वोह भी इतनी बार और इतने दबाव के साथ की मानो ऐसा करने से लिफ्ट आ जाएगी। ऐसे ही जबरदस्त जल्दी में वोह दिखते हैं जब किसी सड़क पर यातायात की लाइट लाल हो, उस वक़्त नियमों को धता बता कर गौरवान्वित चेहरे के साथ वे लाल लाइट के बावजूद यूँ गुज़रते हैं मानो उन्होंने वक़्त पर विजय पा ली हो। किस कदर फिल्म शुरू होने में जरा ज्यादा समय लगाने पर वे दीवानावार सीटी बजा कर हंगामा करने लगते हैं। गोया, उनका एक-एक पल कितना कीमती है! और वे उसे किसी भी सूरत में जाया होने देने का अपराध करना नहीं करना चाहते हैं। उनका समय इतना कीमती है कि शमशान में किसी अंतिम संस्कार के वक़्त भी साथ वाले से दुनियावी बातें कर लेते हैं और मोबाइल पर भी बतियाते रहते हैं। समय कम है सो बेचारे शोकसभा या किसी संगीत सभा के समय भी मोबाइल का कानफोडू रिन्गेर ऑफ नहीं कर पाते हैं। है ना इन्हें समय की सच्ची क़द्र?
अब जरा इन्हीं चेहरों को देखिये सड़क पर लगे किसी मजमे में, जहां वे पूरे इत्मीनान के साथ तमाशा देखते नज़र आएँगे, एक बार मैंने देखा था की किस तरह भोपाल के हमेशा भागते दौड़ते चेतक पुल पर अचानक काफी देर तक के लिए जाम लग गया था। पुल से दिखते एक मकान की छत पर एक युवक किसी युवती की पिटाई कर रहा था। लोग काफी देर तक यह सब देखते रहे, अपने वाहन और कदम रोक कर। कई ऐसे परिवार देखे हैं जो फिल्म देखने गए और शो होउसेफुल होने पर अगले शो तक वहां ही जमे रहे की फिल्म तो आज देखनी ही है, वे बड़े गर्व के साथ इसका किस्सा भी सुनाते हैं। वे कामकाज छोड़ कर कई घंटे तक इस बात पर बहस कर सकते हैं कि इंडियन टीम का क्या हाल है, दुनिया भूल कर इसकी चिंता कर सकते हैं कि राखी का स्वयंवर किस के साथ होगा। ऐसे हर मौके पर समय बेचारा एक कोने में नज़र आता है, शायद वहाँ जिसे हाशिया कहते हैं। पता नहीं समय इस सब पर क्या सोचता होगा। कम से कम मैं तो यह सब देख कर बस मुस्कुरा देता हूँ।

रविवार, जनवरी 10, 2010

क्यों नहीं हो रही राठौड़ की गिरफ्तारी?

नई दिल्ली। रुचिका गिरहोत्रा केस में छह महीने की सज़ा पा चुके हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौड़ को अब तक गिरफ्तार नहीं किया गया हैं। यहां गौर करने वाली बात यह है कि अदालत ने उसकी अग्रिम जमानत याचिका को भी खारिज कर दिया है। ऐसे में देश के आम आदमी के मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि राठौड़ अब तक सीखचों के पीछे क्यों नहीं है। सवाल है कि क्या हरियाणा पुलिस के पूर्व आका को गिरफ्तार करना पंचकूला पुलिस के बूते से बाहर की बात है?
गौरतलब है कि राठौड़ को गिरफ्तार करने में हो रही देरी को लेकर कोर्ट ने हरियाणा पुलिस की खिंचाई की है। पंचकूला के एसपी मनीष चौधरी ने शनिवार को एक बयान में कहा कि हमारी जांच अभी जारी है और सभी पहलुओं को जांचे बिना हम किसी को भी गिरफ्तार नहीं कर सकते। हम कोई कदम जल्दबाजी में नहीं उठा सकते। मनीष के मुताबिक पुलिस इस केस में सबूत जुटा रही है। चौधरी ने कहा कि हम ताजा एफआईआर को सीबीआई को ट्रांसफर कर रहे हैं,ऐसे में राठौड़ को हिरासत में लेने का सवाल नहीं उठता है। उन्होंने कहा कि इस केस में सीबीआई पहले से ही जांच करती रही है, ऐसे में पुलिस सीबीआई को ही केस ट्रांसफर कर रही है।
ताज़ा एफआईआर के बाद कोर्ट में चल रहे मामले में राठौड़ को अग्रिम जमानत नहीं देने वाले सेशन जज संजीव जिंदल ने इस मामले में हीलाहवाली के लिए राज्य सरकार खासकर हरियाणा पुलिस की खिंचाई की। जज जिंदल ने शुक्रवार को टिप्पणी करते हुए कहा, या तो पुलिस अफसर और कानूनी अफसर इस मामले में इतने काबिल नहीं हैं या फिर ताकतवर पुलिस अफसर रहे और सियासी पहुंच रखने वाले आरोपी (राठौड़)के जबर्दस्त दबाव के आगे झुकते हुए जानबूझकर इस केस में लापरवाही बरती जा रही है।

शुक्रवार, जनवरी 08, 2010

स्वागत

मेरे ब्लॉग "मैं... रत्नाकर" में आपका स्वागत है...