शुक्रवार, नवंबर 29, 2013

मुफस्सिल-ए-आशिक़ी चाहे गलत कह जाए
उसकी मासूमियत हरेक जुबां पे रह जाए
वो तो कच्ची मिट्टी के पैमाने सी रखे तासीर
अगरचे जाम तो भरे मगर प्यास भी रह जाए
अंदाज़-ए-बयां जो  दिलकश  नहीं तो गुरेज़ क्यूँ
ज़रूरी  तो नहीं के वो ही चुप का दर्द सह जाए
अबके बरसात खुले रखेंगे चश्म-ए -नम  हम
के उनमें निहा  समंदर भी चुपके से बह जाए
बुतों को भी पसंद है अहतराम, तो ऐसा करें
 साथ बैठें कि शायद वो भी कुछ कह जाए

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रत्नाकर त्रिपाठी







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