शुक्रवार, मई 03, 2013

मैंने कल्पना की है कि

शोक के माहौल पर व्यंग्य लिखना उचित नहीं, लेकिन अपने हिन्दुस्तानी भाई सरबजीत की हत्या पर कुछ ऐसा ही लिखने की हिमाकत  कर रहा हूँ। मैंने कल्पना की है कि  स्वर्ग पहुँचने पर सरबजीत की मुलाक़ात उन हज़रत  से हुई होगी, जो सन 1948  की जनवरी के अंतिम दिनों में भारत भूमि को त्यागकर सिधार गए थे। पेश है उन हज़रत  और सरबजीत के बीच हुई बातचीत का काल्पनिक अंश 
हजरत- " आओ सरबजीत, कोई तकलीफ तो नहीं हुई?"
सरबजीत- " तकलीफ तो है। मार-मार कर मेरी जान ले ली उन्होंने।"
ह- "कोई बात नहीं, उन्होंने एक गाल पर मारा तो तुम्हें दूसरा गाल आगे कर देना था। ऐसा नहीं किया तुमने?" 
स- "उन्होंने मौका ही नहीं दिया। उन्होने तमाचे तो मारे लेकिन मेरे गाल पर नहीं, बल्कि हमारे देश के गाल पर मारे। अब पता नहीं, देश ने दूसरा गाल आगे किया था या नहीं।" 
ह- "देश ने निश्चित ही दूसरा गाल भी आगे किया होगा, आखिर मेरा देश है वो। दुर्भाग्य है कि  हमारे देश के पास दो कश्मीर नहीं थे। ना ही हमारे पास दो अक्साई चीन थे। वरना जब हमारे प्यारे पड़ोसी ने एक कश्मीर छीना तो हम दूसरा भी उसके आगे कर देते। हिंदी-चीनी भाई-भाई ने अक्साई चीन बनाया तो हम दूसरे  अक्साई चीन के लिए भी ज़मीन आगे कर देते। खैर, जितना बन पड़ा उतना तो हमने किया। बाकि भारत भूमि और उसकी किस्मत।" 
स- "उन्होंने मेरी किडनी और दिल निकाल लिए............."
ह (बीच में टोकते हुए) " जब एक किडनी निकल रहे थे तब तुमने दूसरी भी किडनी उनके सामने की थी या नहीं? इस बात पर अफ़सोस जताया या नहीं कि  भाईजान मेरे पास दिल एक ही है, वरना दूसरा भी आपके आगे कर देता?"
स- "कैसे बोलता? मैं तो मर चुका  था ना?"
ह- " वैसे ही बोलते जैसे आज तक मैं बोलता आ रहा हूँ। खैर, अब तुमसे गलती हो गयी। यहाँ एक दिन का व्रत रख कर प्रायश्चित कर लेना। और सुनाओ वहाँ की जेल में कैसी मौज की?"
स-" काहे की मौज? दिन भर काम करता था, रात भर जेलर के पाँव दबाता था। समय मिलता तो घर वालों को याद कर रो लेता था।" 
ह-" वाह! सज़ा हो तो ऐसी। श्रम ही पूजा है, पाँव दबाना ईश्वर  की सच्ची अराधना है। फिर तुमने तो एक अल्पसंख्यक के पाँव दबाये। धन्य हो! लेकिन ये रोने वाली बात गलत है। तुम्हे तो चाहिए था कि  परिवार के लिए रोने की बजाय अपनी बिटिया को रोजाना चिट्ठी लिखते। बाद में उनका प्रकाशन होता "बाप के ख़त बेटी के नाम" शीर्षक से। और समय मिलता तो किताब लिखते, जिसमें भारत से पकिस्तान तक जाने की यात्रा का संस्मरण होता। वो किताब भी छपती "डिस्कवरी ऑफ़ पाकिस्तान" के नाम से। मगर तुमने सारा  समय और ऊर्जा रोने में व्यर्थ कर दिए। जानते नहीं समय की बर्बादी भी एक तरह की हिंसा है। जबकि जेल में बैठ कर ठाठ से खातो-किताबत करना स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। " 
स-" ये गलती हो गयी, लेकिन अब आपने प्रेरणा दी है तो अपने और अपने परिवार वालों के अनुभवों के आधार पर यहाँ बैठ कर एक किताब लिख सकता हूँ " सत्य के साथ मेरे सम्भोग" 
ह- " ये क्या शीर्षक हुआ भला!"
स- "एकदम सही है ये शीर्षक। इस्लामाबाद से ले कर दिल्ली तक की नब्ज़ थामे माननीयों ने सफलतापूर्वक इस शीर्षक वाले नुस्खे का उपयोग अपने हित के लिए किया है। " 
ह- "तुम तो अश्लीलता पर उतर आये, ये भी एक तरह की हिंसा है। खैर, तुम्हारे परिवार वाले कैसे हैं?" 
स- "बहुत दुखी हैं, उनके लिए कुछ उपचार बताइए।"
ह- " सरल उपचार है। परिवार वालों से कहो कि  पकिस्तान से भारत आये किसी घुसपैठिये को अपने घर में पनाह दें। उसे आतंकवादी शिविर चलाने के लिए जगह मुहैया कराएँ। उसके अध्ययन के लिए भारत विरोधी साहित्य का बंदोबस्त करें। फिर उसे गोला-बारूद खरीदने के लिए पैसे दें, ताकि वो भारत भूमि पर अपने पवित्र मंसूबे पूरे कर सके। उनसे कहो ऐसा हर घुसपैठिये के साथ करें, तब तक करते रहें जब तक कि  घुसपैठियों का ह्रदय परिवर्तन ना हो जाए........."
स- "और ये ह्रदय परिवर्तन कब होगा?" 
ह- " अधीरता भी एक तरह की हिंसा है। ये सवाल बेमानी है।" 
स- आपने कहा कि  घुसपैठियों को पैसे दें, मेरा परिवार तो गरीब है, फिर........."
ह- "बनो मत! पंजाब सरकार तुम्हारे परिवार को 1करोड़ रुपये दे रही है। वो कब काम आयेंगे? धन संग्रह भी एक तरह की हिंसा है। अपने परिवार से कहना इस हिंसा से भी बचे। अब तुम जाओ, ये मेरी प्रार्थना का समय है।" 
स- "मेरी आत्मा की शांति के लिए भी प्रार्थना कर लेना" 
ह-" स्वयं की शांति के लिए दूसरों से अपेक्षा भी हिंसा का एक रूप है। अहिंसक बनो। और वैसे भी अब तुम स्वर्ग में हो, मेरे साथ हो, फिर शांति के लिए प्रार्थना की भला क्या ज़रुरत रह जाती है?"
स- " मैं नीचे आपके विचार वाले देश में पला-बढ़ा, आपकी चिंता का केंद्र रहे मुल्क की जेल में सड़ा। सब जगह मेरे साथ जो कुछ हुआ वो आपसे भी छिपा नहीं है। इसलिए यदि मृत्युलोक का काल भी आपके साथ ही बीतना है तो मुझे शांति की प्रार्थना की आवश्यकता तो होगी ही ना" 
ह- अपने देश और पड़ोसी की निंदा करना भी हिंसा का ही स्वरुप है। तुम जाओ, मुझे प्रायश्चित करने दो कि  मैंने तुम जैसे हिंसक इंसान से संवाद कायम किया। अब जाते हो या लाठी मार कर भगाऊँ !! जानते नहीं ये मेरी प्रार्थना का समय है.....................तुम भी आंख बंद कर ध्यान लगाओ और शुरू हो जाओ " चप्पा-चप्पा चरखा चले..........!!!!!!!!!!!!!"

रत्नाकर त्रिपाठी 

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