कुछ दिनों से काफी कुछ जेहन में चल रहा था। बस वोह ही लिख रहा हूँ, रात के उन लम्हात का शुक्रिया कहते हुए जब खुद से ही रूबरू होने का मौका मिल जाता है, ऐसी ही एक रात के नाम
वोह शब, जो ओढी थी चादर तिरे ख़यालात की
वोह शब, जो मुन्तजिर थी तिरे सवालात की
वोह शब, जो खामोश थी मिरे जज़्बात सी
वोह शब, जो नीम थी मिरे हालात सी
वोह शब, रह गयी है कहीं पीछे
अब सहर का खौफ तारी है
बहुत बढ़िया!
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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!
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अनेक शुभकामनाएँ.