बुधवार, अप्रैल 07, 2010

चंद अशआर

अलग-अलग हालत और मूड में मेरे दिमाग में जो आता था वोह लिख कर रख लिया था, आज वोह सब दोबारा लिख कर यूं लग रहा है मानो तिनके समेट रहा हूँ।


इम्तियाज़ नहीं तेरे सितम, मेरी ज़ब्त में
तू हम पे, हम तुझ पे मुस्कुराये जाते हैं

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लडखडाता न जायेगा रिंद तेरे दर से
मयकदा में ऐसा कुछ हो गया है साकी
मय का नशा तो बरक़रार है लेकिन
सुना है तेरा हुस्न अब ढलने लगा है साकी
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पता नहीं है किसका इंतज़ार ज़िन्दगी को
बस जानता हूँ इतना, कोई आने वाला है
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कभी जो मिली ज़िन्दगी तो पूछूंगा ज़रूर
कैसे हैं वोह, जिनके हाथों सौंप आया था तुझे

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आसान नहीं है साथ यूं किसी का पा सकना
अपना साया तक धूप में जल कर मिला हमें

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कोई पाक दामन नहीं, वोह मेरा कफ़न था नादां
जिसको छू की थी दुआ तुमने मेरे जीने की
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