ज़रा सोचो
क्या एक अदालत करेगी तय
कि कहाँ हैं भगवान, कहाँ हैं अल्लाह?
क्या धर्म के ठेकेदार करवाएंगे तय
कि कहाँ होगी पूजा और कहाँ हो नमाज़
क्या चंद सिरफिरे करेंगे तय
कि समाज में अमन रहेगा या नहीं
ये हम तय कर चुके हैं कि
हमारे दिल में हैं भगवान और अल्लाह
कि जहाँ श्रद्धा और अकीदत से झुकेंगे सिर
वोहीं हो जाएगी पूजा और नमाज़
कि समाज में अमन ही होगा, सिरफिरे नहीं
बुधवार, सितंबर 22, 2010
रविवार, सितंबर 19, 2010
मालिक ये कुफ्र..........
मालिक ये कुफ्र मुझसे कैसा हो गया
नाम ले के तेरा किसी और में खो गया
झुका था तो सजदे में मैं तेरे ही फ़क़त
अंदाज़ जाने क्यूं आशिकाना हो गया
वुजू तक ही तो था आब और मेरा साथ
एक याद का बादल मुझे सरापा धो गया
नासेह को तो डूब के ही सुन रहा था मैं
कोई दामन याद आया और मैं सो गया
बाम पे तो मैं बस तलाश रहा था चाँद
दिखा कोई और वहम ईद का हो गया
यूं बेशुमार दर्द मेरी दास्ताँ में छिपा था
जब बुत को सुनाया तो वो भी रो गया
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अर्थ
कुफ्र ------ नाशुक्री, खुदा को ना मानना
आब---- पानी
सरापा---- सिर से पांव तक
नासेह---- उपदेशक
बाम--- छत
गुरुवार, सितंबर 16, 2010
फिर भी....
हे परमात्मा
सामर्थ्य विहीन हूँ मैं
फिर भी
तूने दिया है शरीर को जो त्वचा का लिबास
और टांक दिए हैं उस पर रोएँ बेशुमार
साथ ही यहाँ वहां भर दिया है
स्वेद, लहू और आंसुओं का द्रव्य
उस त्वचा का बना के दीया
रोएँ ढाल कर बाती की शक्ल में
द्रव्य के तेल में भिगो दूं उनको
और मन को झुलसाते सवालों की आग से ले उधार
प्रज्ज्वलित कर दूं इस दीये को
ताकि
वो मिटा सके किसी के जीवन का अंधकार
फैला सके बुझे एक दिल में उजियारा
हटा सके किसी का तन्हाई का डर
दिखाए उसे आने वाले पल की रोशनी
बस इतनी क्षमता दे दो मुझे
हे परमात्मा
सामर्थ्य विहीन हूँ मैं
फिर भी.................
सामर्थ्य विहीन हूँ मैं
फिर भी
तूने दिया है शरीर को जो त्वचा का लिबास
और टांक दिए हैं उस पर रोएँ बेशुमार
साथ ही यहाँ वहां भर दिया है
स्वेद, लहू और आंसुओं का द्रव्य
उस त्वचा का बना के दीया
रोएँ ढाल कर बाती की शक्ल में
द्रव्य के तेल में भिगो दूं उनको
और मन को झुलसाते सवालों की आग से ले उधार
प्रज्ज्वलित कर दूं इस दीये को
ताकि
वो मिटा सके किसी के जीवन का अंधकार
फैला सके बुझे एक दिल में उजियारा
हटा सके किसी का तन्हाई का डर
दिखाए उसे आने वाले पल की रोशनी
बस इतनी क्षमता दे दो मुझे
हे परमात्मा
सामर्थ्य विहीन हूँ मैं
फिर भी.................
गुरुवार, सितंबर 09, 2010
मुक़म्मिल होने को है
हालात की सुई से आंसुओं के रेशे पिरो चुका हूँ
यूं यादों की चादर अब मुक़म्मिल होने को है
आंसुओं की नमी में घोल दिए हैं तमाम ख्वाब
यूं अपनी हरेक शब् अब तनहा होने को है
लिपट के अँधेरे से मिटा दिया है अपने साये को
यूं तुझसे मेरा फासला अब कम होने को है
दुनिया उक़बा दैरो-हरम सारे नज़र से उतर गए
यूं अब पाक इबादत की इब्तिदा होने को है
हम तो बाम से फ़क़त तुझे देख खुश हो लिए हैं
यूं अब मेरी ईद मुबारक की सहर होने को है
यूं यादों की चादर अब मुक़म्मिल होने को है
आंसुओं की नमी में घोल दिए हैं तमाम ख्वाब
यूं अपनी हरेक शब् अब तनहा होने को है
लिपट के अँधेरे से मिटा दिया है अपने साये को
यूं तुझसे मेरा फासला अब कम होने को है
दुनिया उक़बा दैरो-हरम सारे नज़र से उतर गए
यूं अब पाक इबादत की इब्तिदा होने को है
हम तो बाम से फ़क़त तुझे देख खुश हो लिए हैं
यूं अब मेरी ईद मुबारक की सहर होने को है
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