गुरुवार, सितंबर 16, 2010

फिर भी....

हे परमात्मा
सामर्थ्य विहीन हूँ मैं
फिर भी

तूने दिया है शरीर को जो त्वचा का लिबास
और टांक दिए हैं उस पर रोएँ बेशुमार
साथ ही यहाँ वहां भर दिया है
स्वेद, लहू और आंसुओं का द्रव्य

उस त्वचा का बना के दीया
रोएँ ढाल कर बाती की शक्ल में
द्रव्य के तेल में भिगो दूं उनको
और मन को झुलसाते सवालों की आग से ले उधार
प्रज्ज्वलित कर दूं इस दीये को

ताकि
वो मिटा सके किसी के जीवन का अंधकार
फैला सके बुझे एक दिल में उजियारा
हटा सके किसी का तन्हाई का डर
दिखाए उसे आने वाले पल की रोशनी

बस इतनी क्षमता दे दो मुझे

हे परमात्मा
सामर्थ्य विहीन हूँ मैं
फिर भी.................

4 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद खूबसूरत प्रार्थना।

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  2. सच दिल को छू लिया आपकी रचना ने.''हटा सके किसी की तन्हाई का डर....लाज़वाब...तन्हाई का डर वही जानता है ,जिसकी जिंदगी ने उसे तन्हा अँधेरे को सौंप दिया हो....ईश्वर आपकी लेखनी को सलामत रखे
    शुभकामनायें
    वंदना शुक्ल

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  3. बहुत ही खूबसूरत रचना

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