गुरुवार, अप्रैल 08, 2010

मेरे हमसफ़र

कॉलेज के दौर में लिखी थी यह कविता, वोह ३१ अक्टूबर और १ नवम्बर, १९९१ की दरमियानी रात थी। उस रात मेरे साथ सिर्फ सन्नाटा था और किसी साथ की कोई भी उम्मीद रात के कोहरे में गुम हो चुकी थी।


मेरे हमसफ़र
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चाँद के दाग

जिस रात आयेंगे और उभर।


पवन उतरेगी नस-नस में

जैसे कोई ज़हर।


चांदनी चुभती रहेगी

बन कर कहर।


तारे बिखेर न पाएँगे छटा

एक भी प्रहर।


ओस दिखायेगी तन-मन पे

अम्ल सा असर।


तम में घिरा संसार

होगा यूं, जैसे मेरा खँडहर।


उस रात

विश्वास के साथ

किसी दरीचे में ठहर

पूछूंगा इनसे

तुम, क्या तुम सब

बनोगे मेरे हमसफ़र????????????????

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