सोमवार, अगस्त 30, 2010

फलक तक ले जाते हैं

वो जो अपने ख्वाबों की मंजिलों को पाते हैं
दुआओं में भला इतना दम कहाँ से लाते हैं

अपनी तो सदाएं दीवार से मिल मिट गईं
वो अपनी बात कैसे फलक तक ले जाते हैं

नाला सुन के मेरा तो संग भी रो पड़ता है
फिर कैसे पत्थर दिल मुझ पे मुस्कुराते हैं

दर्द के जिन टुकड़ों को सुलाता हूँ कागज़ पे
कैसे वो किसी के लब का गीत बन जाते हैं

जिन राहों से मेरा रकीब जा पहुंचा है तेरे दर
मेरे लिए उन राहों पे क्यों बिछते ये कांटे हैं

10 टिप्‍पणियां:

  1. दर्द के जिन टुकड़ों को सुलाता हूँ कागज़ पे
    कैसे वो किसी के लब का गीत बन जाते हैं
    खुबसूरत शेर दिल की गहराई से लिखा गया, मुवारक हो

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  2. अपनी तो सदाएं दीवार से मिल मिट गईं
    वो अपनी बात कैसे फलक तक ले जाते हैं
    " कितनी खुबसूरत बात कही है इस शेर में, बेहद पसंद आई"
    regards

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  3. दर्द के जिन टुकड़ों को सुलाता हूँ कागज़ पे
    कैसे वो किसी के लब का गीत बन जाते हैं
    बहुत खूबसूरती से भावों को पिरोया...उत्तम प्रस्तुति..बधाई.

    ___________________
    'शब्द सृजन की ओर' में 'साहित्य की अनुपम दीप शिखा : अमृता प्रीतम" (आज जन्म-तिथि पर)

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  4. दर्द के जिन टुकड़ों को सुलाता हूँ कागज़ पे
    कैसे वो किसी के लब का गीत बन जाते हैं
    खुबसूरत शेर दिल की गहराई से लिखा

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  5. अपनी तो सदाएं दीवार से मिल मिट गईं
    वो अपनी बात कैसे फलक तक ले जाते हैं

    हर शेर को दर्द में भिगो दिया है.बहुत बहुत अच्छा लिखते हैं आप..
    बधाई.

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  6. वो जो अपने ख्वाबों की मंजिलों को पाते हैं
    दुआओं में भला इतना दम कहाँ से लाते हैं
    bahut hee khoobsurat line..dil ko chhoo lene wali gazal ke liye badhayi..

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  7. वो जो अपने ख्वाबों की मंजिलों को पाते हैं
    दुआओं में भला इतना दम कहाँ से लाते हैं
    umda panktiyan hai ,,
    ratnakar ji aap bahut achchha likhte hain ,, dhanyawad

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  8. बेनामी11/09/2010 11:34 am

    "दर्द के जिन टुकड़ों को सुलाता हूँ कागज़ पे
    कैसे वो किसी के लब का गीत बन जाते हैं"

    ख़ूबसूरत शेर ...भाव जितने सुन्दर शब्दों का चयन भी उतना ही सुन्दर

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