शुक्रवार, अगस्त 27, 2010

जिस गुलाब को फ़ेंक गए तुम

वो गरमी के आख़िरी दिनों की शाम
जब कहा था तुमने, ये आख़िरी मुलाक़ात है हमारी
और तड़प कर पकड़ लिया था मैंने हाथ तुम्हारा
मैंने कसमें दीं, वादे किये और भर आई थी मेरी आँख
लेकिन नहीं रुक सके तुम
कि शानदार ज़िंदगी इंतज़ार में थी तुम्हारे

उस शाम मेरे दिए जिस गुलाब को फ़ेंक गए तुम
उसके तब वहां बिखरे बीज
आज पौधा बन चुके हैं
उस शाम भरी मेरी आँख
अब खुल कर बहती है
और सींचती है उस गुलाब के पौधे को

उसके फूल मुझे याद दिलाते हैं हमारे साथ गुज़रे पलों की
और कांटे.........
आज भी उस शाम की गरमी सरीखे चुभते हैं

5 टिप्‍पणियां:

  1. साथ गुजारे पल ....भुलाए नहीं भूलते ...हमेशा चुभते है कांटो से ...

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  2. bahut achchha likha hai aapne..........bhavpoorna kavita

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  3. इंसान अपनी ज़िन्दगी को कितने खुबसूरत ढंग से शब्दों का कपडा पहनाता है
    अच्चा लगा आपके विचार जानकर

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