मंगलवार, अप्रैल 02, 2013

साहिल पे रुक के सोना था

मुझ सी थी फितरत उनकी, अंजाम भी मुझ सा होना था 
परदे में रहे जज्बे ओ ज़ख्म, बस चुपके से ही रोना था 

ख्वाहिशें तो मचलती ही रहीं बेकाबू किसी समंदर सी 
उनकी किस्मत में कहाँ साहिल पे रुक के सोना था 

एक नक्शा था जो कब का आसुओं में धुल गया
तेरे दर तक फिर भला कहाँ से जाना होना था

अपने नसीब में जब थी ही नहीं तेरे रुख की धूप
दिल में बोई फसल का बरबाद हश्र ही होना था

वाह री तकदीर की लिखाई का ऐसा गज़ब हाल
तुझको पाने से पहले ही लिखा तुझको खोना था

रत्नाकर त्रिपाठी

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