मंगलवार, जनवरी 19, 2010

समय वाले लोग

पता नहीं लोगों को क्या हो गया है? यह भी कह सकते हैं की यह उन्हें काफी पहले से हो चुका है। क्या कभी देखा है आपने कि किस तरह किसी इमारत की लिफ्ट का इंतज़ार कर रहा व्यक्ति रह-रह कर उसके बटन दबाता रहता है, वोह भी इतनी बार और इतने दबाव के साथ की मानो ऐसा करने से लिफ्ट आ जाएगी। ऐसे ही जबरदस्त जल्दी में वोह दिखते हैं जब किसी सड़क पर यातायात की लाइट लाल हो, उस वक़्त नियमों को धता बता कर गौरवान्वित चेहरे के साथ वे लाल लाइट के बावजूद यूँ गुज़रते हैं मानो उन्होंने वक़्त पर विजय पा ली हो। किस कदर फिल्म शुरू होने में जरा ज्यादा समय लगाने पर वे दीवानावार सीटी बजा कर हंगामा करने लगते हैं। गोया, उनका एक-एक पल कितना कीमती है! और वे उसे किसी भी सूरत में जाया होने देने का अपराध करना नहीं करना चाहते हैं। उनका समय इतना कीमती है कि शमशान में किसी अंतिम संस्कार के वक़्त भी साथ वाले से दुनियावी बातें कर लेते हैं और मोबाइल पर भी बतियाते रहते हैं। समय कम है सो बेचारे शोकसभा या किसी संगीत सभा के समय भी मोबाइल का कानफोडू रिन्गेर ऑफ नहीं कर पाते हैं। है ना इन्हें समय की सच्ची क़द्र?
अब जरा इन्हीं चेहरों को देखिये सड़क पर लगे किसी मजमे में, जहां वे पूरे इत्मीनान के साथ तमाशा देखते नज़र आएँगे, एक बार मैंने देखा था की किस तरह भोपाल के हमेशा भागते दौड़ते चेतक पुल पर अचानक काफी देर तक के लिए जाम लग गया था। पुल से दिखते एक मकान की छत पर एक युवक किसी युवती की पिटाई कर रहा था। लोग काफी देर तक यह सब देखते रहे, अपने वाहन और कदम रोक कर। कई ऐसे परिवार देखे हैं जो फिल्म देखने गए और शो होउसेफुल होने पर अगले शो तक वहां ही जमे रहे की फिल्म तो आज देखनी ही है, वे बड़े गर्व के साथ इसका किस्सा भी सुनाते हैं। वे कामकाज छोड़ कर कई घंटे तक इस बात पर बहस कर सकते हैं कि इंडियन टीम का क्या हाल है, दुनिया भूल कर इसकी चिंता कर सकते हैं कि राखी का स्वयंवर किस के साथ होगा। ऐसे हर मौके पर समय बेचारा एक कोने में नज़र आता है, शायद वहाँ जिसे हाशिया कहते हैं। पता नहीं समय इस सब पर क्या सोचता होगा। कम से कम मैं तो यह सब देख कर बस मुस्कुरा देता हूँ।

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