रविवार, जनवरी 31, 2010

रत्नाकर की कलम से

पलकों में क़ैद कर लो
यह अश्क ढल न जाएँ
तेरी आह का जला हूँ
मेरे ज़ख्म भर न जाएँ

तू एक वफ़ा की मूरत
मेरा बेवफा का चेहरा
मेरे हाल पे यूं आंसू
यह फर्क भर न जाएँ

खाली अगर उठे तो
दुआ का गुमान होगा
हाथों से अपने कह दे
पत्थर न भूल जाएँ

अब पोंछ भी लो आंसू
और फेर लो निगाहें
तेरी दीद से है डर
हम फिर संभल न जाएँ।

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