बेहद अफ़सोस होता है जब-जब यह अहसास सालता है कि मेरी एक पुरानी कॉपी गुम हो गयी है। उसमें बहुत कुछ लिखा था मैंने, लेकिन वोह सब दूसरों का था जो इतना अच्छा लगा कि उसे नोट कर याद कर लिया। ऐसे ही लोगों में थे श्री अस्थाना, जिनकी एक कविता दीपावली की रात किसी अखबार में पढ़ी तो उसे फिर कभी भी दिमाग से उतार नहीं सका, कविता कुछ यूं थी
झुको, नीचे झुको , ज़मीन तक झुको
और उसके पाँव छू लो, वोह मां है,
बहुत संभव है, ऐसा करने में तुम्हारे पैंट की क्रीज़ ख़राब हो जाए
किन्तु तुम्हारे पैंट की क्रीज़ का, उसके चेहरे की झुर्रियों
और बिवाई फटे पैरों से गहरा नाता है
इसलिए बंधू , झुको, नीचे झुको , ज़मीन तक झुको
और उसके पाँव छू लो, वोह मां है
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पूरा नाम तक याद नहीं है श्री अस्थाना का, लेकिन ग़ज़ब की कविता थी यह, उनकी 'वोह कहानी तो सुनी होगी वैशाली' शीर्षक वाली कविता भी ग़ज़ब की थी। किसी का अस्थाना साहेब से परिचय हो तो उन तक मेरा अभिवादन ज़रूर पेश करने की कृपा करें.
अब ज़रा अस्थाना जी की दूसरी कविता भी सुन लीजिये
तुमने वोह कहानी तो सुनी होगी वैशाली कि
राजा से सज़ा पाया आदमी, रात भर डूबा रहा था, ठन्डे खून जमा देने वाले पानी में
सुबह होने पर उसे बताया गया कि, तुम हमारे समय की सबसे भयानक ठंडक से इसलिए बच गए कि
महल के दिए का ताप तुम तक पहुंचता रहा,
यूं तो राजा की क्रूरता को रेखांकित करती है यह कहानी,
लेकिन यह भी सच है कि दीपक के सहारे आदमी लड़ सकता है
बड़ी से बड़ी लड़ाई
तुम दीप बन कर जलो वैशाली
मैं रात भर खड़ा रहूँगा,
ठन्डे खून जमा देने वाले पानी में.
शुक्रिया ...अस्थाना जी कि इतनी बढ़िया रचना पढवाने के लिए ......
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