शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

सहूलियत का दर्द

दोस्तों, शायद सुनने में अजीब लगे, लेकिन सहूलियत के दर्द से परेशान हो रहा हूँ। देखिये ना, आज कोई भी पुराना गाना सुनना हो तो बस नेट पर जाइये, गाना तुरंत हाज़िर है, जब इस सुविधा का पता चला तो मैं काफी रोमांचित हुआ था, लेकिन एकाध दिन बाद ही इस सहूलियत से मन भर गया। क्योंकि इसमें खोज का रोमांच और मेहनत की सफलता का आनंद नहीं था। पुराने गाने सुनने का हमेशा से ही शौक़ीन रहा हूँ। उस समय मेरे भोपाल शहर में तीन या चार दुकाने ही थीं जहाँ पुराना क्लासिक संग्रह मिल सके। तब कितना संघर्ष करते थे एक-एक गाना तलाशने के लिए, न्यू मार्केट में जीटीबी काम्प्लेक्स की सरगम हो या मधु ब्रदर्स, घंटों तक वहाँ खड़े रहकर एक एक एलपी तलाशते थे, गाने की फिल्म का एलपी नहीं मिलता तो पता लगते थे की म्यूजिक किसका है, गाया किसने है या लिखा किसने है यह तक की किस निर्माता की फिल्म थी। गोया की गायक, निर्माता, संगीतकार गीतकार के किसी एल्बम में ही गाना मिल जाए, इसके लिए हर कोशिश करते थे। इन्ही के सामने की भदभदा रोड पर थी ज्योति नाम की दूकान, विलक्षण संग्रह था वहाँ, वहाँ एक बुजुर्ग थे, उन्हें ज़ुबानी याद था की कौन सा गाना किस एल्बम में मिल सकता है। पुराने शहर में कृष्ण रेडियो थी, वहाँ भी बेहतरीन संग्रह था। एक और दूकान नहीं भूल सकता जिसका नाम रिदम हाउस था, उसका भी संग्रह बहुत अच्छा था। कुल मिला कर यह दुकानें हमारे आकर्षण का प्रमुख केंद्र थीं, केसात रेकॉर्ड करने देने के बाद धडकते दिल से उसके मिलने का इंतज़ार करते थे, फिर उससे भी ज्यादा धड़कते दिल से यह सोचते हुए उसे सुनते थे की कोई गाना जगह की कमी के चलते कट न गया हो। केस्ट के ऊपर एक एक गाना लिखते थे। तब एक एक गाना मिलने की जितनी खुशी होती थी, आज वोह नेट पर सारे गाने मिल जाने के बाद भी नहीं होती है।
आज सरगम पर डिशटीवी का काम होता है, मधु ब्रदर्स का व्यवसाय बदल गया है, रिदम हाउस, ज्योति और कृष्णा बंद हो चुकी हैं, जब भी उनके पास से गुजरता हूँ, वोही रोमांच महसूस होता है, जो नेट से नहीं होता।

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