शनिवार, जनवरी 23, 2010

कल रात एक फिल्म देखी नाम था कथा, देख कर एक बात लगी कि कैसे कोई भूल सकता है साईं परांजपे के बारे में। ग़ज़ब बोल्डनेस का परिचय थी उनकी वोह फिल्म जिसने सदियों के मिथक को तोड़ने और झुठलाने की हिम्मत की थी, वोह मिथक जो बचपन से हमारे दिमाग में बैठा दिया जाता है कि कछुआ और खरगोश की दौड़ हुई थी और उसमें कछुआ जीत गया, सुस्त होने के बावजूद कि खरगोश बीच दौड़ में सो गया था। साईं परांजपे ने तोडा यह भ्रम, नासुरिद्दीन शाह को कछुआ और फारूक शैख़ को खरगोश बना के कि भले ही बेवकूफ और सुस्त नसीर यानी कछुआ जीत गया हो, लेकिन उसके हाथ लगे तो मुरझाये हुए फूल ही, आज की तारिख में जो अपने आप का बोल्ड होने का दावा करती हैं उनका सम्मान के साथ जानना चाहता हूँ कि बहुत साधारण तरीके से इतना बोल्ड बात बताने कि हिम्मत कहाँ चली गयी? क्या जरूरी है कि सेक्स दिखाया जाये या गाली गलोच से भरी बात वाली फिल्म बना दी जाए या किसी कि धार्मिक आस्था को चोट पहुंचाई जाए, वोह भी खुद के बोल्ड या प्रोग्रेससिवे कहलाने के नाम पर? सी परांजपे आप जहां भी हें इस कृत्रिम बोल्डनेस के नाम पर एक बार फिर आपकी जरूरत है.

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