सोमवार, फ़रवरी 01, 2010

रत्नाकर की कलम से---- हादसों के दरिया में

हमने तेरी नफरत से मोहब्बत संवारी थी
हादसों के दरिया में कश्ती ये उतारी थी

तेरा जो तगाफुल था, मेरा वो किनारा था
गैर से रिफाकत भी नाखुदा सी प्यारी थी

मेरे कल्बे-बिस्मिल को ज़ब्त ही से निस्बत थी
जुम्बिशों पर भी मेरी तेरी चुप तारी थी

तेरी जुल्फों की चमक, न ही दामन की महक
ये रसन की चाहत थी, दार की तैयारी थी

आख़िरी वो साँसें थीं, आख़िरी वोह ख्वाहिश थी
तूर पे तू आ न सकी, मैंने शब् गुजारी थी

जुर्म का हसीं मौका, गोर की ये तन्हाई
अपने से ही कहता हूँ, तू कभी हमारी थी

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