मंगलवार, जुलाई 06, 2010

रक्स जारी है

बस अभी कुछ दिमाग में आया, वोह लिख दिया, आप गौर करेंगे तो मुझे सुकून मिलेगा, शुक्रिया
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सूरज
, चाँद, फलक और न तारों को ही पा सकी
लेकिन दीवानी अर्ज़ का सदियों से रक्स जारी है

मेरे दामन को छू गया था तेरे अश्क का जो कतरा
इस कायनात के तमाम सावनों पे वो भारी है

शब् भर वुजू कर चुके गुलाब का ज़िक्र आसां नहीं
मिरी कलम ओ जुबां पे भी तो ओस अभी तारी है

क्यूं आ रहे हैं याद मुसलसल गुनाहे-इश्क हमें
तेरे दीदार से पहले ही क्या महशर की बारी है?

एक ओर है शेख साहेब की पांच वक़्त की बंदगी
एक ओर हमारी उम्र जो तेरी याद में गुजारी है
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अर्थ-
फलक- आसमान
अर्ज़- धरती, पृथ्वी
रक्स- नाच (इस लिए कि पृथ्वी लगातार घूमती है )
कायनात- सृष्टि, दुनिया
मिरी कलम ओ जुबां- मेरी कलम और जुबान
मुसलसल- लगातार
महशर- वो जगह जहां मरने के बाद ऊपर वाले को अपने हर पाप का हिसाब देना होता है
पांच वक़्त की बंदगी- पांच वक़्त की नमाज़

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपने ये रचना बहुत अच्छे विषयों पर लिखी है
    किन्तु मैं सोच रही हूँ कि इसे छंद कहूँ या गीत या दोहे, मुक्त कविता, या गजल
    मेरे अल्पज्ञान के अनुसार ये रचना इनमें से किसी के नियमों का पालन नहीं कर रही है,
    कृपया इसे किसी ज्ञानी शास्त्री को दिखा तो लीजिये
    कृपया बुरा न मानियेगा क्योंकि हम आने वाली पीढी को अच्छा साहित्य देना चाहते हैं

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  2. मैं तो इसे खुली कविता कहूँगी....
    जो चंद शब्दों में बहुत कुछ कह गई ।
    बिलकुल सही लिखा है आप ने कि धरती कैसे दिन-रात घूमे जा रही है...
    हमें भी कुछ सीखना चाहिए.....
    कभी समय मिले तो 'हिन्दी हाइकु' बलॉग पर भी आएँ ।
    लिंक है....
    http://hindihaiku.wordpress.com

    हरदीप

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  3. मेरे दामन को छू गया था तेरे अश्क का जो कतरा
    इस कायनात के तमाम सावनों पे वो भारी है

    बहुत दिलकश ग़ज़ल है... आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा...

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