शुक्रवार, जुलाई 02, 2010

मुन्तजिर तो थे

मुन्तजिर तो थे

अपनी एक रचना आप की आप सभी की नज़ारे-इनायत की खातिर पेश कर रहा हूँ.



हम
वक़्त के चलन से यूं बेखबर न थे
लेकिन तेरे वादे के मुन्तजिर तो थे

क्यूं फेर ली निगाह मेरा हाल देख के
जलवे मेरे यूं तो कभी बेअसर न थे

अपना दिल-ओ-जां भी कर दिया निसार
पता चला कि वो भी पुरअसर न थे

तेरे इश्क में बन गए तमाम लोग मगर
हम से मिट जाएँ वो दिल-जिगर न थे

गमे-रोज़गार ने था मसरूफ कर दिया
अगरचे तेरे बुलावे से बेखबर न थे

तू हँस ले, कह के दास्ताँ मेरे अंजाम की
हम भी इस अंजाम से बाखबर न थे


जां, रहा हूँ शराबी, मुद्दतों का मैं लेकिन
किसी भी शराब में तुझसे असर न थे


न कर इन्तेजाम मुझ से दूरी का ऐ जां

तेरी इस अदा के हम मुन्तजिर न थे


अर्थ
मुन्तजिर- इच्छुक, ख्वाहिशमंद
पुरअसर न थे- जिनका कोई असर न हो

गमे-रोज़गार- नौकरी की चिंता
मसरूफ- व्यस्त
अगरचे- वैसे तो
जां - जिसे प्यार किया है

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें