गुरुवार, जुलाई 15, 2010

अश्क बने जाते हैं

अपनी एक रचना सादर पेश कर रहा हूँ
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कितनी है पुर-असर, कोई अजानी सदा
पाँव जिस्म छोड़ उसकी ओर चले जाते हैं

किसी बज़्म में अब है मेरा इंतज़ार क्यूं
किसी चश्म के हम क्यूं अश्क बने जाते हैं

बाद बेदखली के तेरे दिल से हाल है अपना
खंडहर सदाएं दें, हम जिस भी ओर जाते हैं

बददुआ में सही, कहीं ज़िक्र मेरा आया है
आख़िरी हिचकी में हम मुस्कुराये जाते हैं

इम्तेयाज़ नहीं तेरे सितम, मेरी ज़ब्त में
तू हमपे, ओ हम तुझपे मुस्कुराये जाते हैं

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अर्थ
पुर-असर- असर या इफेक्ट रखने वाली
अजानी- अनजानी या अजनबी
बज़्म- महफ़िल
चश्म- आँख

बेदखली- तेरे दिल से बाहर हो जाना (इन पंक्तियों का अर्थ है )
सदाएं- बुलाना, आवाज़ देना
इम्तियाज़- फर्क, अंतर
ओ हम तुझ पे- और हम तुझ पर

3 टिप्‍पणियां:

  1. बददुआ में सही, कहीं ज़िक्र मेरा आया है
    आख़िरी हिचकी में हम मुस्कुराये जाते हैं


    -बहुत उम्दा गज़ल कही है, वाह!!

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  2. बददुआ में सही, कहीं ज़िक्र मेरा आया है
    आख़िरी हिचकी में हम मुस्कुराये जाते हैं

    वाह क्या अंदाज़ है ....बहुत खूब ......!!

    इम्तेयाज़ नहीं तेरे सितम, मेरी ज़ब्त में
    तू हमपे, ओ हम तुझपे मुस्कुराये जाते हैं

    गज़ब लिखते हैं जनाब ......आदाब है ......!!

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  3. वाह! क्या बात है!बहुत बढ़िया गज़ल है.
    यह शेर खास पसंद आया-:
    बाद बेदखली के तेरे दिल से हाल है अपना
    खंडहर सदाएं दें, हम जिस भी ओर जाते हैं'

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