अपनी एक रचना आप की आप सभी की नज़ारे-इनायत की खातिर पेश कर रहा हूँ.
हम वक़्त के चलन से यूं बेखबर न थे
लेकिन तेरे वादे के मुन्तजिर तो थे
क्यूं फेर ली निगाह मेरा हाल देख के
जलवे मेरे यूं तो कभी बेअसर न थे
अपना दिल-ओ-जां भी कर दिया निसार
पता चला कि वो भी पुरअसर न थे
तेरे इश्क में बन गए तमाम लोग मगर
हम से मिट जाएँ वो दिल-जिगर न थे
गमे-रोज़गार ने था मसरूफ कर दिया
अगरचे तेरे बुलावे से बेखबर न थे
तू हँस ले, कह के दास्ताँ मेरे अंजाम की
हम भी इस अंजाम से बाखबर न थे
जां, रहा हूँ शराबी, मुद्दतों का मैं लेकिन
किसी भी शराब में तुझसे असर न थे
न कर इन्तेजाम मुझ से दूरी का ऐ जां
तेरी इस अदा के हम मुन्तजिर न थे
अर्थ
मुन्तजिर- इच्छुक, ख्वाहिशमंद
पुरअसर न थे- जिनका कोई असर न हो
गमे-रोज़गार- नौकरी की चिंता
मसरूफ- व्यस्त
अगरचे- वैसे तो
जां - जिसे प्यार किया है
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