बुधवार, जून 30, 2010

महबूब मरहले

कुछ लिखा है मैंने, कृपया आशीर्वाद दीजिये

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चश्मे-नम, लब की हाय ओ कलम का दर्द
कितने मेहबूब मरहले ग़ज़ल ने पाए हैं

फ़रिश्ते बाँट रहे थे जिधर तमाम खुशियाँ
वहाँ से हम तेरी जुस्तजू मांग लाए हैं

यकीनन किसी गरीब की बेटी जवां हुई है
बेवक्त काले बादल ऐसे ही नहीं छाए हैं

लोरी सुना सुलाता हूँ उन्हें बच्चों की तरह
तुझसे मिले ज़ख्म कुछ यूं अपनाए हैं


पिला के पानी ओ सुना के रोटी की दास्ताँ
भूखे बच्चों को सुलाती मजबूर माएँ हैं

खुद फ़रिश्ते लेते हैं उनके कदमों का बोसा
तेरे कूचे से हो कर दार को जो जाए हैं

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अर्थ
चश्मे-नाम- भीगी आँख
ओ- और
मरहले- वाक्यात, घटनाक्रम
बोसा- चुम्बन
दार- सूली, सलीब

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