मंगलवार, जून 01, 2010

एक पल

अपनी एक और रचना पेश कर रहा हूँ, कृपया गौर फरमाएँ

उस एक पल का हूँ मुन्तजिर
कि, खुदा को भी जब भुला दूं मैं

दुनिया-उक़बा, दैरो-हरम को
काफ़िर के मकाँ सा बना दूं मैं

हश्र की सोच न वाइज की परवाह
जजा-ओ-कुफ्र को मिला दूं मैं

फ़र्ज़ की बंदिश, उसूल के झगड़े
ये दाम-ओ-गुरूर मिटा दूं मैं

तेरी मांग भर तुझे चूम लूं
तुझे फ़क़त अपनी बना लूं मैं

उस एक पल का हूँ मुन्तजिर....

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अर्थ
मुन्तजिर---- इच्छुक
दुनिया-उक़बा --- दुनिया और समाज
दैरो -हरम---- मंदिर और मस्जिद
काफ़िर-- मूर्ति पूजक
मकाँ--- मकान
हश्र-- परिणाम
वाइज--- उपदेशक
जजा--कुफ्र--- पाप और पुण्य

दामो-गुरूर-- जाल और घमंड
फ़क़त-- केवल



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