अपनी एक और रचना पेश कर रहा हूँ, कृपया गौर फरमाएँ
उस एक पल का हूँ मुन्तजिर
कि, खुदा को भी जब भुला दूं मैं
दुनिया-उक़बा, दैरो-हरम को
काफ़िर के मकाँ सा बना दूं मैं
हश्र की सोच न वाइज की परवाह
जजा-ओ-कुफ्र को मिला दूं मैं
फ़र्ज़ की बंदिश, उसूल के झगड़े
ये दाम-ओ-गुरूर मिटा दूं मैं
तेरी मांग भर तुझे चूम लूं
तुझे फ़क़त अपनी बना लूं मैं
उस एक पल का हूँ मुन्तजिर....
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अर्थ
मुन्तजिर---- इच्छुक
दुनिया-उक़बा --- दुनिया और समाज
दैरो -हरम---- मंदिर और मस्जिद
काफ़िर-- मूर्ति पूजक
मकाँ--- मकान
हश्र-- परिणाम
वाइज--- उपदेशक
जजा-ओ-कुफ्र--- पाप और पुण्य
दामो-गुरूर-- जाल और घमंड
फ़क़त-- केवल
बहुत बढिया!!
जवाब देंहटाएंbahut achha laga pad kar
जवाब देंहटाएंbahut khub
http://kavyawani.blogspot.com/