सोमवार, फ़रवरी 01, 2010

वोह शोर नहीं उपकार है मनोज का

मनोज कुमार आज भारत कुमार के नाम से हंसी के पात्र बनाए जाते हैं, उनकी स्टाइल ज़्यादातर नौटंकी के करीब आंकी जाती है। ऐसा करना उन लोगों के लिए बेहद स्वाभाविक है जिन्होंने उनकी हालिया फ़िल्में ही देखी हैं। जिनमें संतोष, क्लर्क, कलयुग की रामायण शामिल हैं, लेकिन जिन्होंने शहीद से लेकर शोर तक देखी हैं उनके लिए मनोज को यूं खारिज कर देना शायद ही मुमकिन हो। कम से कम मेरे लिए तो नहीं ही है। उन फिल्मों में कलाकार का चयन इतनी खूबसूरती के साथ किया गया कि कई बार कहीं से कहीं तक एक्टर का किरदार से समन्वय न होने के बावजूद वोह अजीब नहीं लगा। मनोज कुमार का केमरा संचालन उस दौर के लगभग हर फिल्मकार से एकदम हट कर था। उनकी कहानी हट कर होती थी। यह उनका जोखिम ही था कि लिपस्टिक तथा foundation लगे ओंठ और चेहरों वाले हीरो और बाग़ में नाचने तक सीमित हेरोइन वाली बगैर कहानी की अनेक सफल फिल्म्स के दौर में उन्होंने शोर जैसी सफल सामाजिक फिल्म बनाई, जो आर्ट मूवी के काफी करीब थी। यह उनका ही कमाल था कि शहीद से पहले और उससे बाद की फिल्मों में बुरी नीयत के चलते बदनाम मनमोहन को उन्होंने शहीद में चंद्रशेखर आज़ाद बना कर पेश किया और दर्शकों की शाबाशी पाने में सफल रहे। प्राण को अच्छा आदमी बना कर पेश करने का जोखिम उपकार में उन्होंने उठाया और सब को अपनी सफलता से चमत्कृत कर दिया। उपकार उनकी गज़ब की फिल्म थी, जिसमें उन्होंने बोरिंग हुए बगैर यह बता दिया कि जय जवान जय किसान का मतलब क्या है। क्या आपने कभी वोह गाना देखा है 'दीवानों से यह मत पूछो' कितना बेहतरीन फिल्मांकन था उस गाने के पहले का, गाने के बीच का और गाने के बाद का। मदन पुरी हो चाहे हो कन्हैया लाल, या हों प्राण, सब मनोज जी की फिल्म में बेहतरीन लगते थे, मैं मानता हूँ कि 'क्रांति' के बाद से वो वैसे नहीं रहे लेकिन क्या वोह वो मनोज कुमार नहीं रह जाएँगे???????????????????????????????????????????????????????????????????????????????

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