शुक्रवार, फ़रवरी 12, 2010

इस साले सिस्टम का क्या करें

मध्य प्रदेश में एक नाटक काफी चर्चित है, 'इस साले साठे का क्या किया जाये?' यह नाटक कई बार मंचित किया जा चुका है और मैंने भी इसे एक बार देखा है, इस तरह के और भी आयोजन देखे हैं और हर बार मन में कई सालों (भाषा के लिए माफ़ी चाहता हूँ ) के लिए येही सवाल उठता है की इनका क्या किया जाये? यह "साले " वोह हैं जो हमारे यहाँ के भारत भवन में मुफ्त प्रदर्शित किये जाने वाले हर नाटक में आगे की सीट पर नज़र आते हैं। वेह पूरे नाटक के दौरान बार-बार ऊंची आवाज़ में संवाद की तारीफ, अदायगी की तारीफ आदि करते हैं और सब का ध्यान अपनी और खींचने की कोशिश करते हैं। वस्तुतः, एक कला प्रेमी होने से ज्यादा उनका ध्यान स्वयं को 'आगे की सीट का दर्शक ' बताने में रहता है। इन्हीं 'सालों ' में ऐसे मुफ्तखोर भी हैं, जो मुफ्त के मनोरंजन के लिए कला मर्मग्य बन जाते हैं, आयोजन में समय बिताने के लिए जाते हैं और अनावश्यक भीढ़ बढ़ा देते हैं, जबकि इनके चलते कई बार उस प्रस्तुति के सच्चे प्रशंसक को निराश होना पड़ता है। ऐसे "सालों " के दो उदहारण देता हूँ, सन १९९४ में इस्माइल मर्चंट की फिल्म मुहाफ़िज़ रिलीज़ हुई। चूंकि इसका अधिकाँश हिस्सा भोपाल में फिल्माया गया था, इसलिए पहले दिन यहाँ के रविन्द्र भवन में फिल्म का मुफ्त प्रदर्शन रखा गया। उसे देखने के लिए मानो पूरा शहर वहाँ आ गया था। रविन्द्र भवन में पांव रखने की भी जगह नहीं बची थी, यह बात और है की इस स्थान से कुछ ही दूरी पर बने रंगमहल टाकीज (अब सिनेप्लेक्स ) में उसी समय इस फिल्म का शो खाली गया, क्योंकि उसे देखने के लिए टिकेट लेना ज़रूरी था।
पिछले साल प्रसिद्द फिल्म स्लाम्दोग का रविन्द्र भवन में मुफ्त शो रखा गया, एक बार फिर मुहाफ़िज़ जैसे ही हालत बने। उस समय भी इस फिल्म के संगम टाकीज में शो चल रहे थे, जो लगातार खाली गए। वाकई इन "सालों " के चलते कहना पड़ता है "मुफ्त के मनोरंजन की जय हो "

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें