शनिवार, फ़रवरी 27, 2010

रत्नाकर की कलम से मुकाम सुकून

बीती देर रात ऑफिस से आने के बाद न जाने मन कैसा हो रहा था, जब अति हो गयी तो कुछ लिख डाला, कृपया देखिए

नूरे-माजी में छिना

वो तीरगी का लुत्फ़

अगरचे मुकामे सुकूं

तलाशा किये थे हम
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मारा तुझसे अहद ने

पसे-नज्द ला के हमको

वरना मंजिले-ज़िन्द

आ ही चुके थे हम

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सदके मैं कुफ्रे-ज़िन्द

एक आह ही बची है

यूं तो शबाबे-महशर

पा ही चुके थे हम
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अल्लाह क्या है दोजख

ओ क्या जन्नत का ख्वाब?

कुरबां दिले-साहिर

सब भूल गए थे हम
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रहे सलामती उनकी

रस्मे-ज़फ़ा के संग

अशआर जिनकी खातिर

अब बन गए हैं हम

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छी रचना....मेरी आत्मीय शुभकामनाएं .....अखिलेश सोनी

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  2. lajawab ye rachana likhi nahi rachi gaee hai. sadhubaad
    shahidsamar

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