मंगलवार, फ़रवरी 02, 2010

कैसे-कैसे लोग- रत्नाकर के सच्चे अनुभव

दोस्तों, बचपन से आज तक कई ऐसे लोगों से मिला हूँ जो या तो स्वयं बेहद असामान्य थे और या उनसे मिलने के हालात विचित्र रहे, सब तो याद नहीं हैं, लेकिन जितने भी याद आते जाएँगे, उन्हें लिखूंगा ज़रूर, शायद उन में से ही कोई इसे पढ़ ले।

वो पोलिस वाला

तब शायद ९ में पढ़ता था, एक फिल्म लगी थी भोपाल शहर की भारत टाकिज में, नाम था पांच कैदी। फिल्म देख कर अकेला लौट रहा था, पैदल था, पोलिस कंट्रोल रूम के पास एक पोलिस वाले ने अचानक रोक लिया। अपनी पहचान बता देने के बाद मैं निश्चिन्त था की अब वोह मुझे जाने देगा, लेकिन उस भी पर न जाने क्या भूत सवार था, बोला "इतनी दूर तक पैदल ही जा रहे हो?" मेरे हाँ कहने पर वोह बोला परेड मैदान का एक चक्कर काट कर दिखाओ तो बस के पैसे दे दूंगा, मैं फँस गया था, क्योंकि घर से चोरी छिपे फिल्म देखने गया था, बस के पैसे नहीं, मैं तो बस वहाँ से निकल जाना चाहता था। मरता क्या न करता? लगाया, लम्बे चौड़े मैदान का रोउन्द। बेमन से यह किया तो थक भी गया था। उसने पानी पिलवाया, बस के पैसे दिए और बोला "यदि तुम्हारे पिताजी चाहते की तुम पोलिस में जाओ और उसके लिए ऐसा व्यायाम करो तो क्या तुम ऐसा करते?" मेरे हाँ कहने पर उसने अपना पता बताया और दो रुपये और दिए। कहा "साला मेरा बेटा मेरी ऐसी बात मानता ही नहीं है, फिल्म देखने ही चला जाये, लेकिन कुछ पैदल तो चले, तुम्हारी ही उम्र का है, उसे आकर समझाना " मैं फिर कभी उससे नहीं मिला लेकिन आज भी याद है जब बस में बैठ कर मैंने नीचे खड़े उस पिता की और देखा तो उसकी आँख भर आई थी। वोह कुछ संभला और फीकी हंसी हंसते हुए अजीब स्वर में बोला '' पता नहीं, आँख में क्या गिर गया है।'' बस चल पडी थी, मैंने महसूस किया उसकी आँख का पानी उसकी आवाज़ पर उतरने लगा था।

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