सारिका के बहुत पुराने अंक में चार पंक्तियाँ पढी थीं, लेखक याद नहीं लेकिन पंक्तियाँ इतनी अच्छी थीं कि हमेशा के लिए याद रह गयी, आप भी सुनिए
" सन्नाटे में बैठे हैं अल्फाज़ वोही लेकिन
माने नहीं मेरे हैं, मतलब नहीं तेरा है"
ऐसे ही कहीं सुना था
' मीठी नदी कोई मिले तो अपनी प्यास बुझा लेना
हम से कुछ उम्मीद न रखना, हम तो सागर खारे हैं"
यह तो अद्भुत लगा
"शब्द-शब्द की आँखें नाम हैं
तुम्हें पता है? यह सब हम हैं"
पता नहीं किसने लिखा था, लेकिन इसे जब भी पढ़ा आँख भर आई
" रसोई में भभकते स्टोव को देखकर, कहती बाकी फिर
कभी में बहन
या, लाम पर भाई
कोई याद कर रहा है हमें"
bakee phir kabhee
' मीठी नदी कोई मिले तो अपनी प्यास बुझा लेना
जवाब देंहटाएंहम से कुछ उम्मीद न रखना, हम तो सागर खारे हैं"
Beautiful ! itni sundar aur meaningful panktiyan.... WAH ....