मंगलवार, फ़रवरी 02, 2010

दूसरों की कलम से जो लगा बहुत अच्छा

सारिका के बहुत पुराने अंक में चार पंक्तियाँ पढी थीं, लेखक याद नहीं लेकिन पंक्तियाँ इतनी अच्छी थीं कि हमेशा के लिए याद रह गयी, आप भी सुनिए

" सन्नाटे में बैठे हैं अल्फाज़ वोही लेकिन

माने नहीं मेरे हैं, मतलब नहीं तेरा है"

ऐसे ही कहीं सुना था

' मीठी नदी कोई मिले तो अपनी प्यास बुझा लेना

हम से कुछ उम्मीद न रखना, हम तो सागर खारे हैं"


यह तो अद्भुत लगा

"शब्द-शब्द की आँखें नाम हैं
तुम्हें पता है? यह सब हम हैं"

पता नहीं किसने लिखा था, लेकिन इसे जब भी पढ़ा आँख भर आई

" रसोई में भभकते स्टोव को देखकर, कहती बाकी फिर

कभी में बहन
या, लाम पर भाई
कोई याद कर रहा है हमें"







bakee phir kabhee

1 टिप्पणी:

  1. बेनामी7/11/2010 2:45 pm

    ' मीठी नदी कोई मिले तो अपनी प्यास बुझा लेना

    हम से कुछ उम्मीद न रखना, हम तो सागर खारे हैं"

    Beautiful ! itni sundar aur meaningful panktiyan.... WAH ....

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